________________
३६०
अनुयोगद्वारसूत्र
है, अतः शब्द पौद्गलिक है।
सारांश यह है कि शब्द एकान्ततः अपौरुषेय नहीं है कथंचित् पौरुषेय और कथंचित् अपौरुषेय है। अर्थात् पौद्गलिक भाषावर्गणाओं का परिणाम होने से अपौरुषेय तथा पुरुष के ताल्वादिक के व्यापार से जन्य होने से पौरुषेय है।
इस प्रकार से ज्ञानगुणप्रमाण का निरूपण करने के बाद अब भावप्रमाण के दूसरे भेद दर्शनगुणप्रमाण का वर्णन करते हैं। दर्शनगुणप्रमाण
४७१. से किं तं दंसणगुणप्पमाणे ?
दंसणगुणप्पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा–चक्खुदंसणगुणप्पमाणे अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे ओहिदंसणगुणप्पमाणे केवलदसणगुणप्पमाणे य ।
चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घड-पड-कड-रधादिएसु दव्वेसु, अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयभावे, ओहिदंसणं ओहिदंसणिस्स सव्वरूविदव्वेहिं न पुण सव्वपजवेहिं, केवलदसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेहिं सव्वपजवेहि य । से तं दंसणगुणप्पमाणे । [४७१ प्र.] भगवन् ! दर्शनगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ?
[४७१ उ.] आयुष्मन् ! दर्शनगुणप्रमाण चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—चक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण।
चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों में होता है।
अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन आत्मभाव में होता है अर्थात् घटादि पदार्थों के साथ संश्लेष संयोग होने पर होता है।
अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है, किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता है। केवलदर्शनी का केवलदर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों में होता है। यही दर्शनगुणप्रमाण है।
विवेचन— जीव में अनन्त गुण हैं। उनमें से ज्ञानगुण का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक है । समान रूप से सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले गुणधर्मों को सामान्य और असाधारण धर्मों को विशेष धर्म कहते हैं । ये दोनों प्रकार के धर्म प्रत्येक द्रव्य में हैं और इन दोनों को जानने-देखने वाले गुण दर्शन और ज्ञान हैं । ज्ञान द्वारा द्रव्यगत विशेष धर्मों और दर्शन द्वारा सामान्य धर्मों का परिज्ञान किया जाता है। जैसे ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम आदि होने से ज्ञान द्वारा पदार्थों का विशेष रूप में पृथक्-पृथक् विकल्प, नाम, संज्ञापूर्वक ग्रहण होता है वैसे ही दर्शनावरणकर्म का क्षयोपशम आदि होने से पदार्थों का जो सामान्य ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कोई किसी पदार्थ को देखता है और जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक जो सत्तामात्र का ग्रहण है, उसे दर्शन और जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होता है तब उसको ज्ञान कहते हैं। दर्शन में सामान्य की मुख्यता है और विशेष गौण, जबकि ज्ञान में सामान्य गौण और विशेष मुख्य होता है।