SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण सर्ववैधर्म्यापनीत है। यही वैधर्म्यापनीत उपमानप्रमाण का आशय है । यह उपमानप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिए । विवेचन— उक्त प्रश्नोत्तरों में उपमानप्रमाण के दूसरे भेद वैधर्म्यापनीत का विचार किया है। यह वैधर्म्यापनीत विलक्षणता का बोध कराता है और उसके भी तीन भेद हैं। किंचित्वैधर्म्यापनीत में सामान्य धर्म की अपेक्षा भेद नहीं है । गोगत धर्मों की अपेक्षा दोनों में तुल्यता है, लेकिन माता पृथक्-पृथक् प्रकार की होने से वर्णभेद अवश्य है। इसी कारण किंचित् विलक्षणता प्रकट की गई है। प्रायः वैधर्म्यापनीत में अनेक अवयगत विसदृशता पर ध्यान रखा जाता है। वायस और पायस के नाम में दो अक्षरों की समानता है। किन्तु वायस चेतन है और पायस जड़ पदार्थ है । इसलिए दोनों में साम्य नहीं हो सकता है। इस विधर्मता के कारण प्राय: वैधर्म्यता कही गई है। ३५७ यद्यपि सर्ववैधर्म्यापनीत में भी सर्वसाधर्म्यापनीत की तरह उसकी उपमा उसी को दी जाती है, फिर भी उसे इसलिए पृथक् माना है कि प्रायः नीच भी जब गुरुघात आदि महापाप नहीं करता तो फिर अनीच करेगा ही कैसे ? अतः सकल जगत् के विरुद्ध कर्म में प्रवृत्त होने की विवक्षा से सर्ववैधर्म्यापनीतता बताने के लिए सर्ववैधर्म्यापनीत उपमानप्रमाण का निर्देश किया है। अब क्रमप्राप्त आगमप्रमाण का विचार करते हैं । आगमप्रमाणनिरूपण ४६७. से किं तं आगमे ? आग़मे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा — लोइय य लोगुत्तरिए य । [ ४६७ प्र.] भगवन् ! आगमप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [४६७ उ.] आयुष्मन् ! आगम दो प्रकार का है। यथा—१. लौकिक, २. लोकोत्तर । ४६८. से किं तं लोइए ? लोइए जण्णं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्ठीएहिं सच्छंदबुद्धिमतिविगप्पियं । तं जहा— भारहं रामायणं जाव चत्तारि य वेदा संगोवंगा । से तं लोइए आगमे । [४६८ प्र.] भगवन्! लौकिक आगम किसे कहते हैं ? [४६८ उ.] आयुष्मन् ! जिसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जनों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो, उसे लौकिक आगम कहते हैं। यथा महाभारत, रामायण यावत् सांगोपांग चार वेद । ये सब लौकिक आगम हैं। ४६९. से किं तं लोगुत्तरिए ? लोगुत्तरिए जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाण- दंसणधरेहिं तीय-पच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं तेलोक्कवहिय - महिय - पूइएहिं सव्वण्णूहिं सव्वदरिसीहिं पणीय दुवालसंगं गणिपिडगं । तं जहा— आयारो जाव दिट्टिवाओ । से तं लोगुत्तरिए आगमे । [४६९ प्र.] भगवन् ! लोकोत्तर आगम का क्या स्वरूप है ? [४६९ उ.] आयुष्मन् ! उत्पन्नज्ञान दर्शन के धारक, अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और अनागत के ज्ञाता
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy