________________
प्रमाणाधिकारनिरूपण
वासुदेव के समान, साधु ने साधु सदृश किया । यही सर्वसाधर्म्यापनीत है।
यह साधर्म्यापनीत उपमानप्रमाण है।
विवेचन — प्रस्तुत में उपमानप्रमाण के प्रथम भेद साधर्म्यापनीत के अवान्तर भेदों का वर्णन किया है।
दो भिन्न पदार्थों में आंशिक गुण-धर्मों की समानता देखकर एक को दूसरे की उपमा देना साधर्म्यापनीत उपमान है। यह उपमा एकदेशिक भी हो सकती है— कतिपय वर्ण - गंध-रस - स्पर्श की अपेक्षा भी और कुछ उससे भी अधिक एक जैसी रूप तथा अत्यल्प भिन्नता वाली हो सकती है और कुछ ऐसी भी जो सर्वात्मना सदृश हो। इसी अपेक्षा साधर्म्यापनीत के तीन भेद होते हैं।
३५५
किंचित्साधर्म्यापनीत में कुछ-कुछ समानता को लेकर उपमा दी जाती है। इसके लिए सूत्रकार ने जो उदाहरण दिये हैं उनमें सर्षप और मेरुपर्वत के बीच आकार — संस्थान आदि की अपेक्षा भेद हैं, तथापि दोनों मूर्तिमान हैं और रूप-रस-गंध-स्पर्शवान होने से पौद्गलिक हैं। इसी प्रकार से सूर्य और खद्योत में मात्र प्रकाशकत्व की अपेक्षा, समुद्र एवं गोष्पद में जलवत्ता तथा चन्द्र तथा कुंद में शुक्लता की अपेक्षा समानता है । अन्यथा उन सबमें महान् अंतर स्पष्ट है । इसीलिए ऐसी उपमा किंचित्साधर्म्यापनीत कहलाती है।
किंचित्साधर्म्यापनीत से प्रायः साधर्म्यापनीत उपमा का क्षेत्र व्यापक है। इसमें उपमेय और उपमान पदार्थगत समानता अधिक होती है और असमानता अल्प- नगण्य जैसी । जिसमें श्रोता उपमेय वस्तु को तत्काल जान लेता है। किंचित्साधर्म्यापनीत वस्तु का ज्ञान करना तत्काल सम्भव नहीं है। इसको समझने के लिए अधिक स्पष्टीकरण अपेक्षित होता है । यही दोनों में अन्तर है ।
प्रायः साधर्म्यापनीत के लिए गो और गवय का उदाहरण दिया है। इसमें गो सास्नादि युक्त है और गवय (नीलगायं) वर्तुलाकार कंठ वाला है। लेकिन खुर, ककुद, सींग आदि में समानता है । इसीलिए यह प्राय:साधर्म्यापनीत का उदाहरण है ।
सर्वसाधर्म्यापनीत में सर्व प्रकारों से समानता बताने के लिए उसी से उसको उपमित किया जाता है। अतएव कदाचित् यह कहा जाये कि उपमा तो दो पृथक् पदार्थों में दी जाती है । सर्व प्रकारों से समानता तो किसी में भी किसी के साथ घटित नहीं होती है। यदि इस प्रकार से समानता घटित होने लगे तो फिर दोनों में एकरूपता होने से उपमान का यह तीसरा भेद नहीं बन सकेगा । इसका उत्तर यह है
यह सत्य है कि दो वस्तुओं में सर्वप्रकार से समानता नहीं मिलती है, फिर भी सर्वप्रकार से समानता का तात्पर्य यह है कि उस जैसा कार्य अन्य कोई नहीं कर सकता है। इसीलिए अरिहंत आदि के उदाहरण दिये हैं कि तीर्थ का स्थापना करना इत्यादि कार्य अरिहंत करते हैं, उन्हें अन्य कोई नहीं करता है । लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि किसी के किए हुए अद्भुत कार्य के लिए कहा जाता है— इस कार्य को आप ही कर सकते हैं अथवा आपके तुल्य जो होगा, वही कर सकता है, अन्य नहीं। इसी दृष्टि से सर्वसाधर्म्यापनीत को उपमानप्रमाण का पृथक् भेद माना है ।
१.
सर्वसाधर्म्यापनीत के लिए संस्कृत लोकोक्ति प्रसिद्ध है—
गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः । रामरावणयोर्युद्धं रामरावणोरिव ॥