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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३५३ आचार्य भद्रबाहु ने दशवैकालिकनिर्युक्ति में अनुमानप्रयोग के अवयवों की चर्चा की है। यद्यपि संख्या गिनाते हुए उन्होंने पांच' और दस' अवयव होने की बात कही है किन्तु अन्यत्र उन्होंने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होने की सूचना दी है। दस अवयवों को भी उन्होंने दो प्रकार से गिनाया है। इस प्रकार भद्रबाहु के मत में अनुवाक्य के दो, तीन, पांच या दस अवयव होते हैं। अवयव इस प्रकार हैं— २. प्रतिज्ञा, उदाहरण; ३. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण; ५. प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार, निगमन । १०. (क) प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि, दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन, निगमनविशुद्धि । १०. (ख) प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविभक्ति, हेतु, हेतुविभक्ति, विपक्ष, विपक्ष-प्रतिषेध, दृष्टान्त, आशंका, आशंकाप्रतिषेध, निगमन । ० लेकिन अनुमानप्रयोग में कितने अवयव होने चाहिए— इस विषय में जैनदर्शन का कोई आग्रह नहीं है । सर्वत्र यह स्वीकार किया है कि जितने अवयवों से जिज्ञासु को तद्विषयक ज्ञान हो जाये उतने ही अवयवों का प्रयोग करना चाहिए । इस प्रकार से भावप्रमाण के दूसरे भेद अनुमान की चर्चा करने के बाद अब तीसरे भेद उपमान का वर्णन करते हैं। उपमानप्रमाण ४५८. से किं तं ओवम्मे ? ओवम्मे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा— साहम्मोवणीते स वेहम्मोवणीते य । विवेचन — यहां भेदमुखेन उपमान प्रमाण का वर्णन किया गया है। सदृशता के आधार पर वस्तु को ग्रहण करना उपमान है। १. २. [४५८ प्र.] भगवन्! उपमान प्रमाण का क्या स्वरूप है ? [४५८ उ.] उपमान प्रमाण दो प्रकार का कहा है, जैसे—– साधर्म्यापनीत और वैधर्म्यापनीत । उपमा दो प्रकार से दी जा सकती है— समान — सदृश गुणधर्म वाले तुल्य पदार्थ को देखकर अथवा विसदृश गुणधर्म वाले पदार्थ को देखकर । इसीलिए उपमान प्रमाण के दो भेद बताये हैं - १. साधर्म्यापनीत और २. वैधर्म्यापनीत। समानता के आधार से जो उपमा दी जाती है उसे साधर्म्यापनीत कहते हैं तथा दो अथवा अधि पदार्थों में जिसके द्वारा विलक्षणता बतलाई जाती है उसे वैधर्म्यापनीत कहते हैं । यह साधर्म्य और वैधर्म्य किंचित्, ३. ४. दशवैकालिक नियुक्ति वही गाथा ५० वही गाथा ४९ वही गाथा १३७
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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