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________________ ३४८ अनुयोगद्वारसूत्र तंतु पट के कारण होते हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं है। क्योंकि आतानवितानीभूत बने हुए तंतुओं से पहले पट की उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु आतानवितानीभूत बने हुए तंतुओं की सत्ता में ही होती है। परन्तु तंतुओं के लिए ऐसी बात नहीं है, पट के अभाव में भी तंतुओं की उपलब्धि देखी जाती है। चाहे कोई निपुण पुरुष पट रूप से संयुक्त हुए तंतुओं को उस पट से अलग कर दे तब भी वह पट उन तंतुओं का कारण नहीं है। गुणजन्य शेषवत्-अनुमान से गुणों के गुणी वस्तु का ज्ञान होता है। जैसे कसौटी पर स्वर्ण को कसने से उभरी हुई रेखा से स्वर्ण का, गंध की उपलब्धि से पुष्प की जाति आदि का ज्ञान होता है। इस प्रकार के अनुमान को गुणजन्य शेषवत्-अनुमान कहा है। अवयव से अवयवी के अनुमान की प्रवृत्ति तभी होती है जब ढंके छिपे होने के कारण अवयवी न दिखता हो, मात्र तदविनाभावी अवयव की उपलब्धि हो रही हो। आश्रयानुमान में अग्नि का धूम से ज्ञान होना आदि जो उदाहरण दिये गये हैं, उनका आशय यह है कि धूम आदि अग्नि आदि के आश्रित रहते हैं। इसलिए धूम आदि को देखने से उनके आश्रयी का ज्ञान हो जाता है। यद्यपि धूम, अग्नि का कार्य है और ऐसा अनुमान कार्य से कारण के अनुमान में अन्तर्भूत होता है, तथापि उसे यहां जो आश्रयानुमान कहा है, उसका कारण यह है कि धूम अग्नि के आश्रय रहता है, ऐसी लोक में प्रसिद्धि है। इसे लक्ष्य में रखकर धूम को आश्रित मानकर तदाश्रयी अग्नि का उसे अनुमापक कहा है। दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान ४४८. से किं तं दिट्ठसाहम्मवं ? दिट्ठसाहम्मवं दुविहं पण्णत्तं । तं जहा—सामन्नदिटुं च विसेसदिटुं च । [४४८ प्र.] भगवन् ! दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का क्या स्वरूप है ? [४४८ उ.] आयुष्मन् ! दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान दो प्रकार का कहा है। यथा—१. सामान्यदृष्ट, २. विशेषदृष्ट। ४४९. से किं तं सामण्णदिटुं ? सामण्णदिटुं जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो । से तं सामण्णदिटुं । [४४९ प्र.] भगवन् ! सामान्यदृष्ट अनुमान का क्या स्वरूप है ? । [४४९ उ.] आयुष्मन् ! सामान्यदृष्ट अनुमान का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए—जैसा एक पुरुष होता है, वैसे ही अनेक पुरुष होते हैं। जैसे अनेक पुरुष होते हैं, वैसा ही एक पुरुष होता है। जैसा एक कार्षापण (सिक्काविशेष) होता है वैसे ही अनेक कार्षापण होते हैं, जैसे अनेक कार्षापण होते हैं, वैसा ही एक कार्षापण होता है। यह सामान्यदृष्ट साधर्म्यवत्-अनुमान है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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