SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३४५ जहां साध्याविनाभावी साधन होता है, वहां-वहां साध्य होता है, इस नियम के अनुसार जहां अविनाभावी साधन दृष्टिगत हो रहा हो वहां अवश्य ही साध्य है, इस प्रकार से परोक्ष अर्थ की सत्ता जानने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। यह अनुमान प्रत्यक्षज्ञान की तरह प्रमाण है । पूर्ववत् - अनुमाननिरूपण ४४१. से किं तं पुव्ववं ? पुव्ववं माता पुत्तं जहा नट्टं जुवाणं पुणरागतं । काई पच्चभिजाणेज्जा पुव्वलिंगेण केणइ ॥ ११५॥ तं जहा — खतेण वा वणेण वा मसेण वा लंछणेण वा तिलएण वा । से तं पुव्ववं । [४४१ प्र.] भगवन् ! पूर्ववत् - अनुमान किसे कहते हैं ? [४४१ उ.] आयुष्मन्! पूर्व में देखे गये लक्षण से जो निश्चय किया जाये उसे पूर्ववत् कहते हैं । यथा— माता बाल्यकाल से गुम हुए और युवा होकर वापस आये हुए पुत्र को किसी पूर्वनिश्चित चिह्न से पहचानती है कि यह मेरा ही पुत्र है । ११५ जैसे—– देह में हुए क्षत —– घाव, व्रण — कुत्ता आदि के काटने से हुए घाव, लांछन, डाम आदि से बने चिह्नविशेष, म तिल आदि से जो अनुमान किया जाता है, वह पूर्ववत् - अनुमान है 1 विवेचन — यहां अनुमान के पूर्ववत् भेद का लक्षण बताया है। तात्पर्य यह है कि पूर्वज्ञात किसी लिंग (चिह्न) द्वारा पूर्वपरिचित वस्तु का ज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है।" यहां अनुमानप्रयोग इस प्रकार किया जायेगा—यह मेरा पुत्र है, क्योंकि अन्य में नहीं पाए जाने वाले क्षतादि विशिष्ट लिंग वाला है । कदाचित् यह कहा जाये कि इस अनुमानप्रयोग में साधर्म्यदृष्टान्त का अभाव होने से यह साध्य की सिद्धि करने में अक्षम है तो इसका उत्तर यह है कि हेतु दृष्टान्त के बल से ही अपने साध्य का निश्चायक हो, यह नियम नहीं है । परन्तु जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व (साध्य के अभाव में हेतु का न होना) है, वह नियम से अपने साध्य का गमक होता है। अर्थात् अन्यथानुपन्नत्व ही हेतु का लक्षण है । दृष्टान्त के अभाव में भी ऐसा हेतु गमक होता है। यदि यह कहा जाये कि जब पुत्र प्रत्यक्षज्ञान का विषय है, तब अनुमानप्रयोग करने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान यह है, पुरुष का पिंडमात्र दिखने पर भी 'यह मेरा पुत्र है या नहीं' ऐसा संदेह बना हुआ है। इस संदेह का निराकरण करने के लिए अनुमानप्रयोग किया जाना संगत है कि यह मेरा पुत्र है, क्योंकि अमुक असाधारण चिह्न से युक्त है। शेषवत् - अनुमाननिरूपण १. ४४२. से किं तं सेसवं ? अनुयोगद्वार, मलयवृत्ति. पृ. २१२
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy