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अनुयोगद्वारसूत्र
नहीं आ सकेगी। अतः प्रत्यक्ष शब्द की पूर्वोक्त व्युत्पत्ति ही निर्दोष है।
प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- १. इन्द्रियप्रत्यक्ष और २. नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । जिस प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रियां सहकारी हों वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है और जिस ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय आदि की सहायता से नहीं होती है, उसे नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं। 'नो' शब्द यहां निषेधवाचक है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस ज्ञान की उत्पत्ति केवल आत्माधीन होती है, वह नोइन्द्रियप्रत्यक्ष है।
इन्द्रियजन्य ज्ञान को लौकिक व्यवहार की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है, क्योंकि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है—'मैंने अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष देखा है।' परमार्थ की अपेक्षा तो इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष ही है। नन्दीसूत्र में जो इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है वह भी लोकव्यवहार की अपेक्षा से कहा गया 1
इन्द्रियप्रत्यक्ष के पांच भेद श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले अपने-अपने विषयों की अपेक्षा जानना चाहिए। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, घ्राणेन्द्रिय का विषय गंध, रसनेन्द्रिय का विषय रस एवं स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है।
इन्द्रियप्रत्यक्ष के भेदों के क्रम - विन्यास से जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि शास्त्रों में जीवों की इन्द्रियवृद्धि का क्रम स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, इस प्रकार का है। उस क्रम को छोड़कर पश्चानुपूर्वी से इसका उल्लेख क्यों किया है ? इसका उत्तर यह है कि क्षयोपशम और पुण्य की प्रकर्षता अधिक होने पर जीव पंचेन्द्रिय बनता है और उसके बाद उससे न्यून होने पर चतुरिन्द्रिय । त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय के लिए भी यही समझना चाहिए । अतएव पुण्य और क्षयोपशम की प्रकर्षता को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष का और फिर पश्चानुपूर्वी के क्रम से चक्षुरिन्द्रिय आदि का विधान किया है। अभिप्राय यह है कि पुण्य और क्षयोपशम की मुख्यता सेतो पश्चानुपूर्वी से और जाति की अपेक्षा पूर्वानुपूर्वी से इन्द्रियों का क्रम कहा गया है। इन इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष है ।
नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेद हैं—– अवधिज्ञानप्रत्यक्ष, मनः पर्यायज्ञानप्रत्यक्ष और केवलज्ञानप्रत्यक्ष । इनको नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहने का कारण यह है कि इनकी उत्पत्ति केवल आत्माधीन है। इनमें इन्द्रियव्यापार सर्वथा नहीं होता है किन्तु साक्षात् जीव ही अर्थ को जानता है । अवधिज्ञान आदि तीनों के लक्षण पूर्व में बताये जा चुके हैं। अनुमानप्रमाणप्ररूपणा
४४०. से किं तं अणुमाणे ?
अणुमा तिविहे पण्णत्ते । तं०—पुव्ववं सेसवं दिट्ठसाहम्मवं ।
[४४० प्र.] भगवन् ! अनुमान का क्या स्वरूप है ?
[४४० उ.] आयुष्मन्! अनुमान तीन प्रकार का कहा है— पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् ।
विवेचन-- — अनुमान शब्द के 'अनु' और 'मान' ऐसे दो अंश हैं। 'अनु' का अर्थ है पश्चात् और मान का अर्थ है ज्ञान । अर्थात् साधन के ग्रहण (दर्शन) और सम्बन्ध के स्मरण के पश्चात् होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साधन से साध्य का जो ज्ञान हो, वह अनुमान है । साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले
तु को साधन कहते हैं । अतएव उस हेतु के दर्शन होते ही साध्य - साधन की व्याप्ति का स्मरण होता है, तब जहां