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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ज्योतिष्क देवों के बद्ध-मुक्त पंच शरीर ४२५. (१) जोइसियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा प० ? गो० ! जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा । ३३७ [४२५-१ प्र.] भगवन्! ज्योतिष्क देवों के कितने औदारिकशरीर होते हैं ? [ ४२५ - १ उ.] गौतम! ज्योतिष्क देवों के औदारिकशरीर नारकों के औदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए । (२) जोइसियाणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गो० ! दुविहा प० । तं बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया जाव तासि णं सेढीणं विक्खंभसूची बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया । [४२५-२ प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ? [४२५-२ उ.] गौतम! दो प्रकार के कहे गये हैं— बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं यावत् उनकी श्रेणी की विष्कंभसूची दो सौ छप्पन प्रतरांगुल के वर्गमूल रूप अंश प्रमाण समझना चाहिए। मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्तऔदारिकशरीरों जितना जानना चाहिए । (३) आहारयसरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा । [४२५-३] ज्योतिष्कदेवों के आहारकशरीरों का प्रमाण नारकों के आहारकशरीरों के बराबर है । (४) तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव वेउव्विया तहा भाणियव्वा । [४२५-४] ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण इनके बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों के बराबर है। विवेचन — प्रस्तुत सूत्रों में ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गई है। इनके बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा नारकवत् समझने का तात्पर्य यह है कि बद्धऔदारिकशरीर तो ज्योतिष्कदेवों के होते नहीं और मुक्तऔदारिकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा अनन्त हैं। ज्योतिष्कदेवों के बद्धवैक्रियशरीरों का निर्देश अति संक्षेप में किया है। उसका आशय यह है कि वे असंख्यात हैं । कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं। क्षेत्रतः उनका प्रमाण प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर है। विशेष यह है कि उन श्रेणियों की विष्कंभसूची व्यंतरों की विष्कंभसूची से संख्यात गुणी अधिक होती है। क्योंकि महादंडक में व्यंतरों से ज्योतिष्क देव संख्यातगुणा अधिक बताये गये हैं । इसीलिए प्रतिभाग के विषय में विशेष स्पष्ट करते हुए कहा है कि उन श्रेणियों की विष्कंभसूची २५६ प्रतरांगुलों का वर्गमूल रूप जो प्रतिभाग—अंश है, उस अंशरूप यह विष्कंभसूची जानना चाहिए। आशय यह है कि २५६ अंगुल वर्गप्रमाण श्रेणीखंड में यदि एक-एक ज्योतिष्क देव की स्थापना की जाये तो वे संपूर्ण प्रतर को पूर्ण कर सकेंगे । अथवा यदि एक-एक ज्योतिष्कदेव के अपहार से एक-एक दो सौ
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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