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अनुयोगद्वारसूत्र (२) वाणमंतराणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ?
गो० ! दुविहा प० । तं०—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेजा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई संखेजजोयणसयवग्गपलिभागो पतरस्स । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ।
[४२४-२ प्र.] भगवन् ! वाणव्यंतर देवों के कितने वैक्रियशरीर कहे गये हैं ?
[४२४-२ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्धवैक्रिय शरीर सामान्य रूप से असंख्यात हैं जो काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची प्रतर के संख्येययोजनशतवर्ग प्रतिभाग (अंश) रूप है। मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण औधिक औदारिकशरीरों की तरह जानना चाहिए।
(३) आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं ।
[४२४-३] दोनों प्रकार के आहारकशरीरों का परिमाण असुरकुमारों के दोनों आहारकशरीरों के प्रमाण जितना जानना चाहिए।
(४) वाणमंतराणं भंते ! केवइया तेयग-कम्मगसरीरा प० ? गो० ! जहा एएसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा तेयग-कम्मगसरीरा वि भाणियव्वा । [४२४-४ प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तरों के कितने तैजस-कार्मण शरीर कहे हैं ? [४२४-४ उ.] गौतम! जैसे इनके वैक्रियशरीर कहे हैं, वैसे ही तैजस-कार्मण शरीर भी जानना चाहिए। विवेचन- वाणव्यंतर देवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वाणव्यंतर देवों के औदारिकशरीरों का प्रमाण नारकों के औदारिकशरीरों के प्रमाण जितना कहने का तात्पर्य यह है कि वाणव्यंतर देवों के बद्धऔदारिकशरीर तो होते नहीं हैं। मुक्त औदारिकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा अनन्त हैं।
वाणव्यंतर देवों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं, क्योंकि इन देवों की संख्या असंख्यात है। इस असंख्यात को स्पष्ट करने के लिए कहा है कि कालतः एक-एक समय में एक-एक बद्धवैक्रियशरीर का अपहार किया जाये तो असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी कालों के समयों में इनका अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई जो असंख्यात श्रेणियां हैं, उन श्रेणियों के जितने प्रदेश हों उतने प्रदेश प्रमाण वाणव्यंतरों के बद्धवैक्रियशरीर हैं। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कम्भसूची तिर्यंच पंचेन्द्रियों की बद्धऔदारिकशरीर की विष्कंभसूची से असंख्यातगुणहीन जानना चाहिए।
वाणव्यंतर देवों के मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण औधिक मुक्तऔदारिकशरीरों के समान है, अर्थात् अनन्त है।
बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का प्रमाण असुरकुमारों के समान कहने का तात्पर्य यह है कि वाणव्यंतर देवों के बद्धआहारकशरीर होतें नहीं हैं और मुक्तआहारकशरीर मुक्तऔदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं। बद्ध तैजसकार्मण शरीर वाणव्यंतरों के बद्धवैक्रियशरीर के समान असंख्यात हैं और मुक्त तैजस-कार्मण शरीर अनन्त होते हैं।