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प्रमाणाधिकारनिरूपण
३२९ " [उ.] गौतम! औधिक तैजस-कार्मण शरीरों के प्रमाण के बराबर वनस्पतिकायिक जीवों के तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण जानना चाहिए।
_ विवेचन- उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि वनस्पतिकायिकों के बद्धऔदारिकशरीर पृथ्वीकायिक जीवों के समान जानना चाहिए। अर्थात् असंख्यात होते हैं। इसका कारण यह है कि साधारण वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होने पर भी उनका एक शरीर होने से औदारिकशरीर असंख्यात ही हो सकते हैं। इनके वैक्रियलब्धि और आहारकलब्धि नहीं होने से मुक्त-वैक्रिय-आहारकशरीर ही होते हैं। उनका परिमाण अनन्त है। परन्तु इनके बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मणशरीर अनन्त हैं। क्योंकि वे प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र होते हैं और साधारण जीवों के अनन्त होने से इन दोनों को अनन्त जानना चाहिए। विकलत्रिकों के बद्ध-मुक्त शरीर . ४२१. (१) बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पन्नत्ता ?
गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूयी असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाइं सेढिवग्गमूलाइं; बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लएहिं पयरं अवहीरइ असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्ततो अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेन्जइभागपडिभागेणं । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा ।
वेउव्विय-आहारगसरीरा णं बद्धेल्लया नत्थि, मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरा ओहिया तहा भाणियव्वा ।
तेया-कम्मगसरीरा जहा एतेसिं चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा । [४२१-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ?
[४२१-१ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्धऔदारिकशरीर असंख्यात हैं। कालत: असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणियोंअवसर्पिणियों के समय जितने हैं। क्षेत्रतः प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कंभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजनप्रमाण है। इतने प्रमाण वाली विष्कम्भसूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप है। द्वीन्द्रियों के बद्धऔदारिकशरीरों द्वारा प्रतर अपहृत किया जाए तो काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहृत होता है तथा क्षेत्रतः अंगुल मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रतिभाग (प्रमाणांश) से अपहृत होता है। जैसा औधिक मुक्तऔदारिकशरीरों का परिमाण कहा है, वैसा इनके मुक्तऔदारिकशरीरों के लिए भी जानना चाहिए।
द्वीन्द्रियों के बद्धवैक्रिय-आहारकशरीर नहीं होते हैं और मुक्त के विषय में जैसा औधिक मुक्तऔदारिकशरीर के विषय में कहा है, वैसा जानना चाहिए।