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अनुयोगद्वारसूत्र तैजस और कार्मण के बद्ध-मुक्त शरीरों के लिए जैसा इनके औदारिकशरीरों के विषय में कहा है, तदनुरूप कथन करना चाहिए।
(२) जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदियाणं चउरिदियाण वि भाणियव्वं ।
[४२१-२] द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों के सम्बन्ध में जो निर्देश किया है, वैसा ही त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी कहना चाहिए।
विवेचन— प्रस्तुत पाठ में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की है। उसका द्वीन्द्रिय की अपेक्षा से स्पष्टीकरण इस प्रकार है
द्वीन्द्रियों के बद्धऔदारिकशरीर असंख्यात हैं और उस असंख्यात का परिमाण काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, तत्प्रमाण है। क्षेत्र की अपेक्षा वे शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। इन श्रेणियों की विष्कम्भसूची असंख्यात कोटाकोटि योजनों की जानना चाहिए। इतने प्रमाण वाली विष्कंभ (विस्तार) सूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप होती है। इसका तात्पर्य यह है कि आकाशश्रेणि में रहे हए समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं. जिनको असत्कल्पना से ६५५३६ समझ लें। ये ६५५३६ असंख्यात के बोधक हैं। इस संख्या का प्रथम वर्गमूल २५६ है, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा वर्गमूल ४ तथा चौथा वर्गमूल २ हुआ। कल्पित ये वर्गमूल असंख्यात वर्गमूल रूप हैं। इन वर्गमूलों का जोड़ करने पर (२५६+१६+४+२ =२७८) दो सौ अठहत्तर हुए। यह २७८ प्रदेशों वाली विष्कम्भसूची है। अब इसी शरीरप्रमाण को दूसरे प्रकार से बताने के लिए सूत्र में पद दिया है '.......पयरं अवहीरइ असंखेजाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं कालओ' अर्थात् द्वीन्द्रिय जीवों के बद्धऔदारिकशरीरों से यदि सब प्रतर खाली किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयों से वह समस्त प्रतर द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक शरीरों से खाली किया जा सकता है और क्षेत्रतः 'अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेजइभागं पडिभागेणं' अर्थात् अंगुल प्रतर के जितने प्रदेश हैं उनको एक-एक द्वीन्द्रिय जीवों से भरा जाए और फिर उन प्रदेशों से आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप समय में एक-एक द्वीन्द्रिय जीव को निकाला जाए तो आवलिका के असंख्यात भाग लगते हैं। इतने प्रदेश अंगुल प्रतर के हैं। उस प्रतर के जितने प्रदेश हैं, उतने द्वीन्द्रिय जीवों के बद्धऔदारिकशरीर हैं। इस प्रकार से बताई गई संख्या में पूर्वोक्त कथन से कोई भेद नहीं है, मात्र कथन-शैली की भिन्नता है।
द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्तऔदारिकशरीरों के समान है।
द्वीन्द्रियों के बद्धवैक्रिय-आहारकशरीर नहीं होते हैं। मुक्तवैक्रिय-आहारकशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान है—वे अनन्त हैं। ____ इनके बद्ध, मुक्त तैजस, कार्मण शरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्ध, मुक्त औदारिकशरीरों की तरह क्रमशः असंख्यात और अनन्त जानना चाहिए।
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों के समान है। मात्र 'द्वीन्द्रिय' के स्थान में 'त्रीन्द्रिय' और 'चतुरिन्द्रिय' शब्द का प्रयोग करना चाहिए।