SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३२५ [४१९-२ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध असंख्यात हैं। जो कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा वे असंख्यात श्रेणियों जितने हैं और वे श्रेणियां प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा मुक्त वैक्रियशरीरों के लिए जैसे सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के लिए कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिए। विवेचन— यहां असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का परिमाण बताया है। सामान्यतः तो असुरकुमारों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं किन्तु वे असंख्यात, कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, उतने हैं। क्षेत्रत: असंख्यात का परिमाण इस प्रकार बताया है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के जितने प्रदेश होते हैं, उतने हैं। यहां उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची ली गई है जो अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवां भाग है। यह विष्कम्भसूची नारकों की विष्कम्भसूची की अपेक्षा उसके भाग प्रमाण वाली है। इस प्रकार असुरकुमार, नारकों की अपेक्षा उनके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के महादण्डक में रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की संख्या की अपेक्षा समस्त भवनवासी देव असंख्यातवें भागप्रमाण कहे गये हैं। अतः समस्त नारकों की अपेक्षा असुरकुमार उनके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अर्थात् अल्प हैं यह सिद्ध हो जाता है। असुरकुमारों के मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के तुल्य समझने का संकेत किया है, अर्थात् सामान्य रूप से मुक्त औदारिकशरीर के समान अनन्त हैं। (३) असुरकुमाराणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । जहा एएसिं चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा । [४१९-३ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने आहारकशरीर कहे गये हैं ? [४१९-३ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। ये दोनों प्रकार के आहारकशरीर इन असुरकुमार देवों में औदारिकशरीर के जैसे जानने चाहिए। तथा (४) तेयग-कम्मगसरीरा जहा एतेसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा । [४१९-४] तैजस और कार्मण शरीर जैसे इनके (असुरकुमारों के ) वैक्रियशरीर बताये, उसी प्रकार जानना चाहिए। (५) जहा असुरकुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्वं । [४१९-५] असुरकुमारों में जैसे इन पांच शरीरों का कथन किया है, वैसा ही स्तनितकुमार पर्यन्त के सब भवनवासी देवों के विषय में जानना चाहिए। - विवेचन— यहां असुरकुमारों के बद्ध और मुक्त आहारकशरीर आदि शरीरत्रय की तथा असुरकुमारों के अतिरिक्त शेष नौ प्रकार के भवनपति देवों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि पांच शरीरों की प्ररूपणा की है। - बद्ध और मुक्त आहारकशरीर देवों में औदारिकशरीरवत् जानने के कथन का यह आशय है कि जिस प्रकार
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy