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प्रमाणाधिकारनिरूपण
३२३ विवेचनउपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में नारक जीवों में बद्ध और मुक्त औदारिक आदि पंच शरीरों के परिमाण की प्ररूपणा की गई है।
___ वैक्रियशरीर वाले होने से नारकों में बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते हैं। मुक्त औदारिकशरीर सामान्य से बताये गये मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं। क्योंकि पूर्वप्रज्ञापननय की अपेक्षा नारक जीवों के औदारिकशरीर होते हैं। नारक जीव जब पूर्व भवों में तिर्यंच या मनुष्य पर्याय में था, तब वहां औदारिकशरीर था और अब उसे छोड़कर नरकपर्याय में आया है। इसीलिए नारक जीवों के मुक्त औदारिकशरीर सामान्यतः अनन्त कहे हैं।
__ नैरयिक जीवों का भवस्थ शरीर वैक्रिय होता है। अतएव नैरयिकों के बद्ध वैक्रियशरीर उतने ही हैं जितने नैरयिक हैं। नैरयिकों की संख्या असंख्यात है, अतः एक-एक नारक के एक-एक वैक्रियशरीर होने से उनके वैक्रियशरीरों की संख्या भी असंख्यात है।
इस असंख्यातता की शास्त्रकार ने कालतः और क्षेत्रतः प्ररूपणा की है। कालतः प्ररूपणा का अर्थ यह है कि असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर हैं।
क्षेत्रतः बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं। यहां श्रेणी की व्याख्या के लिए संकेत किया हैपयरस्स असंखेजइभागो—प्रतर का असंख्यातवां भाग ही श्रेणी कहलाता है। ऐसी असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं।
__अब यहां प्रश्न है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में असंख्यात योजन कोटियां भी आ जाती हैं तो क्या इतने क्षेत्र में जो आकाश-श्रेणियां हैं, उनको यहां ग्रहण किया गया है ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिए शास्त्र में संकेत दिया है—प्रतर के असंख्येय भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की विस्तारसूची–श्रेणी यहां ग्रहण की गई है किन्तु प्रतर के असंख्येय भाग में रही हुई असंख्यात योजन कोटि रूप क्षेत्रवर्ती नभःश्रेणी ग्रहण नहीं की गई है। इस विष्कम्भसूची का प्रमाण द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितना ग्रहण किया गया है। इसका आशय यह हुआ कि अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेशराशि है, उसमें असंख्यात वर्गमूल हैं, उनमें प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी श्रेणियां लभ्य हों, उतनी प्रमाण वाली विष्कम्भसूची यहां ग्रहण करना चाहिए। इसे यों समझना चाहिए कि वस्तुतः असंख्येयप्रदेशात्मक प्रतरक्षेत्र में असत्कल्पना से मान लें कि २५६ श्रेणियां हैं। इन २५६ का प्रथम वर्गमूल सोलह (१६४१६ =२५६) अथवा (२४५+६ -१६) हुआ और दूसरा वर्गमूल ४ एवं तीसरा वर्गमूल २ होता है। प्रथम वर्गमूल १६ के साथ द्वितीय वर्गमूल ४ का गुणा करने पर (१६४४ =६४) चौंसठ हुए। बस इतनी ही (६४) उसकी श्रेणियां हुईं। ऐसी श्रेणियां यहां ग्रहण की गई हैं।
__प्रकारान्तर से इसी बात को सूत्र में इस प्रकार कहा गया है—अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियां समझना चाहिए। इसका आशय हुआ कि अंगुल मात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश हैं, उस राशि के द्वितीय वर्गमूल का घन करें, उतने प्रमाण वाली श्रेणियां समझना चाहिए। जिस राशि का जो वर्ग हो उसे उसी राशि से गुणा करने पर घन होता है। यहां असत्कल्पना से असंख्यात प्रदेशराशि को २५६ माना था। उसका प्रथम वर्गमूल १६ और द्वितीय
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प्रथम वर्गमूल के भी वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल कहते हैं, इसी प्रकार तृतीय आदि वर्गमूलों के विषय में जानना चाहिए।