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________________ ၃ ၃ ခု अनुयोगद्वारसूत्र नारकों से बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा ४१८. (१) नेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पन्नत्ता ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं०—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं नत्थि । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा । [४१८-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने औदारिकशरीर कहे गये हैं ? [४१८-१ उ.] गौतम! औदारिकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध औदारिकशरीर उनके नहीं होते हैं और मुक्त औदारिकशरीर पूर्वोक्त सामान्य मुक्त औदारिकशरीर के बराबर जानना चाहिए। (२) नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूयी अंगुलपढमवग्गमूलं बितियवग्गमूलपडुप्पण्णं अहवा णं अंगुलबितियवग्गमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा । [४१८-२ प्र.] भगवन् ! नारक जीवों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? __ [४१८-२ उ.] गौतम! दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध वैक्रियशरीर तो असंख्यात हैं जो कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयप्रमाण हैं । क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं। वे श्रेणियां प्रतर का असंख्यात भाग हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची' अंगुल के प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणित करने पर निष्पन्न राशि जितनी होती है। अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियों जितनी है। मुक्त वैक्रियशरीर सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिए। (३) णेरइयाणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं नत्थि । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा । [४१८-३ प्र.] भगवन् ! नारक जीवों के कितने आहारकशरीर कहे गये हैं ? [४१८-३ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा—बद्ध और मुक्त। बद्ध आहारकशरीर तो उनके नहीं होते हैं तथा मुक्त जितने सामान्य औदारिक शरीर कहे गये हैं, उतने जानना चाहिए। (४) तेयग-कम्मगसरीरा जहाएतेसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा । [४१८-४] तैजस और कार्मण शरीरों के लिए जैसा इनके वैक्रियशरीरों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार समझना चाहिए। १. विस्तार की अपेक्षा लम्बाई को लिए हुई एक प्रादेशिकी श्रेणी।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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