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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३२१ नहीं, अतः उनको मिलाया नहीं जा सकता है तथा एक-एक जीव के मुक्त तैजसशरीर सर्व जीवराशिप्रमाण या उससे कुछ अधिक नहीं अपितु उससे बहुत कम ही होते हैं और वे भी असंख्यात काल तक ही उस पर्याय में रहते हैं, उसके बाद तैजसशरीर रूप परिणाम-पर्याय का परित्याग करके नियम से दूसरी पर्याय को प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए प्रतिनियत काल तक अवस्थित होने के कारण उनकी संख्या उत्कृष्ट से भी अनन्त रूप ही है, इससे अधिक नहीं। उतने काल में जो अन्य मुक्त तैजसशरीर होते हैं, वे भी थोड़े ही होते हैं, क्योंकि काल थोड़ा है। इस कारण मुक्त तैजसशरीर जीववर्गप्रमाण नहीं होते किन्तु जीववर्ग के अनन्तंभाग मात्र ही होते हैं। द्रव्य की अपेक्षा उपर्युक्त मुक्त तैजसशरीर से अनन्तगुणे अथवा सर्व जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण होने को असत्कल्पना से स्पष्ट करते हैं किसी एक राशि को उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे ४ को ४ से गुणा करने ४४४ =१६ सोलह संख्या वाला वर्ग होता है। इसी प्रकार जीवराशि से जीवराशि को गुणा करने पर प्राप्त राशि जीववर्ग है। सर्व जीवराशि अनन्त है। उसे कल्पना से दस हजार और अनन्त का प्रमाण १०० मान लिया जाए तो दस हजार के साथ १०० का गुणा करने पर दस लाख हुआ। यह हुआ मुक्त तैजसशरीरों का सर्वजीवों से अनन्तगुणा परिमाण। जीववर्ग का अनन्त भाग इस प्रकार होगा कि सर्व जीवराशि कल्पना से १०००० मानकर वर्ग के लिए इस दस हजार को दस हजार से गुणा करें। इस प्रकार गुणा करने से दस करोड़ की राशि आई। वह जीववर्ग का प्रमाण हुआ। अब अनन्त के स्थान पर पूर्वोक्त १०० रखकर दस करोड़ में उनका भाग देने पर दस लाख आये। वही जीवराशि के वर्ग का अनन्तवां भाग हुआ। इस प्रकार से मुक्त तैजसशरीर इतने प्रमाण में जीवराशि के वर्ग के अनन्तवें भाग रूप हैं, ऐसा असत्कल्पना से समझ लेना चाहिए। मुक्त तैजसशरीर द्रव्य की अपेक्षा सर्वजीवों से अनन्तगुणे हैं या जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण हैं, इन दोनों कथनों का एक ही तात्पर्य है। केवल कथन की भिन्नता है, अर्थ की नहीं है। बद्ध-मुक्त कार्मणशरीरों की संख्या ४१७. केवइया णं भंते ! कम्मयसरीरा पन्नत्ता ? गो० ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । जहा तेयगसरीरा तहा कम्मगसरीरा वि भाणियव्वा । . [४१७ प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीर कितने कहे गये हैं ? [४१७ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा—बद्ध और मुक्त। जिस प्रकार से तैजसशरीर की वक्तव्यता पूर्व में कही गई है, उसी प्रकार कार्मणशरीर के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन— तैजसशरीरों के समान ही कार्मणशरीरों की वक्तव्यता जान लेने का निर्देश करने का कारण यह है कि तैजस और कार्मण शरीरों की संख्या एवं स्वामी समान हैं तथा ये दोनों शरीर एक साथ रहते हैं—अतएव इतनी समानता होने से विशेष कथनीय शेष नहीं रह जाता है। इस प्रकार पांच शरीरों का सामान्य रूप से कथन करके अब नारकादि चौबीस दंडकों में उनकी प्ररूपणा की जाती है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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