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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३१९ कालत: असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं तथा वे श्रेणियां प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं तथा मुक्त वैक्रियशरीर अनन्त हैं। कालत: वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं। शेष कथन मुक्त औदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए। विवेचन— यहां सामान्य रूप से वैक्रियशरीर के बद्ध-मुक्त प्रकारों की संख्या का परिमाण बतलाया है। वैक्रियशरीर नारकों और देवों के सर्वदा ही बद्ध रहते हैं। परन्तु मनुष्य और तिर्यंचों के जो कि वैक्रियलब्धिशाली हैं, उत्तरवैक्रिय करने के समय ही बद्ध होते हैं। यह वर्णन पूर्वोक्त औदारिकशरीर के कथन से प्रायः मिलता-जुलता है। परन्तु क्षेत्रापेक्षया बद्ध वैक्रियशरीरों की संख्या का निर्देश करने में कुछ विशेषता है। जो इस प्रकार जानना चाहिए क्षेत्रापेक्षया बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं और उन श्रेणियों का प्रमाण प्रतर का असंख्यातवां भाग है। जिसका आशय यह हुआ कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियां हैं और उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं। ___मुक्त वैक्रियशरीरों का वर्णन मुक्त औदारिकशरीरों के समान है। अतः उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझ लेनी चाहिए। बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण ४१५. केवइया णं भंते ! आहारगसरीरा प० ? गोयमा ! दुविहा प० । तं०—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिया अस्थि सिया नत्थि, जइ अत्थि जहण्णेणं एगो वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं । मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरस्स तहा भाणियव्वा । [४१५ प्र.] भगवन्! आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ? [४१५ उ.] गौतम! आहारकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध स्यात् कदाचित् होते है कदाचित् नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं। मुक्त अनन्त हैं, जिनकी प्ररूपणा औदारिकशरीर के समान जानना चाहिए। विवेचन— यहां बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण बतलाया है। बद्ध आहारकशरीर चतुर्दशपूर्वधारी संयत मनुष्य के होते हैं। बद्ध आहारकशरीर के कदाचित् होने और कदाचित् नहीं होने का कारण यह है कि आहारकशरीर का अंतर (विरहकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास का है। यदि आहारकशरीर होते हैं तो उनकी संख्या जघन्यतः एक, दो या तीन होती है और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व हो सकती है। दो से नौ तक की संख्या का नाम पृथक्त्व है और सहस्र कहते हैं, दस सौ (हजार) को। अतएव इसका अर्थ यह हुआ कि उनकी उत्कृष्ट संख्या दो हजार से नौ हजार तक हो सकती है। अर्थात् एक समय में (पृच्छा काल में) उत्कृष्टतः एक साथ दो हजार से लेकर नौ हजार तक आहारकशरीरधारक हो सकते हैं। मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिए। बद्ध-मुक्त तैजसशरीरों का परिमाण ४१६. केवतिया णं भंते ! तेयगसरीरा पण्णत्ता ?
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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