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________________ ३१८ अनुयोगद्वारसूत्र उन पृथक्-पृथक् स्थापित शरीरों से व्याप्त हो जाएं। अर्थात् एक-एक लोकाकाशप्रदेश पर एक-एक शरीर रखा जाए तो क्रमशः रखने पर भी वे बद्ध औदारिकशरीर इतने और बचे रहते हैं कि जिन्हें क्रमशः एक-एक प्रदेश पर रखने के लिए असंख्यात लोकों की आवश्यकता होगी। मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या- मुक्त औदारिकशरीरों का अनन्तत्व काल, क्षेत्र और द्रव्य की अपेक्षा इस प्रकार समझना चाहिए कालापेक्षया उन मुक्त औदारिकशरीरों का परिमाण अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के अपहरण काल के बराबर है। अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक मुक्त औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो अपहरण करने में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां व्यतीत हो जाएंगी। क्षेत्रापेक्षया मुक्त औदारिकशरीरों का प्रमाण अनन्त लोक-प्रमाण है। अर्थात् एक लोक में असंख्यात प्रदेश हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, इतने मुक्त औदारिकशरीर हैं।। द्रव्यापेक्षया मुक्त औदारिक शरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। एतद्विषयक शंका-समाधान इस प्रकार है शंका- जिन जीवों ने पहले सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया और बाद में मिथ्यादृष्टि हो गये ऐसे प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण बतलाई है। तो क्या ये मुक्त औदारिकशरीर इन्हीं के बराबर हैं ? समाधान– यदि ये उनकी समान संख्या वाले होते तो उनका सूत्र में निर्देश होता, किन्तु सूत्र में संकेत नहीं है। अतएव यह जानना चाहिए कि ये मुक्त औदारिकशरीर प्रतिपतित सम्यग्दृष्टियों की राशि की अपेक्षा कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक भी होते हैं। ये अनन्तानन्त औदारिकशरीर एक ही लोक में दीपक के प्रकाश के समान अवगाढ़ होकर रहे हुए हैं। जैसे एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उसी भवन में रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिकशरीर भी एक लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों की संख्या ४१४. केवतिया णं भंते ! वेउव्वियासरीरा प० ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेजा, असंखेजाहिं उस्प्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पतरस्स असंखेजइभागो । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, सेसं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा एते वि भाणियव्वा । [४१४ प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [४१४ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे हैं। यथा—बद्ध और मुक्त। उनमें से जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं और १-२. अनुयोगद्वार मलधारीया टीका पत्र १९७
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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