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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो अनंता लोगा, दव्वओ अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणा सिद्धाणं अनंतभागो । ३१७ [४१३ प्र.] भगवन्! औदारिकशरीर कितने प्रकार के प्ररूपित किये हैं ? [४१३ उ.] गौतम! औदारिकशरीर दो प्रकार के प्ररूपित किये हैं । वे इस प्रकार - १. बद्ध औदारिकशरीर, २. मुक्त औदारिकशरीर । उनमें जो बद्ध औदारिकशरीर हैं वे असंख्यात हैं। वे कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों - अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः असंख्यात लोकप्रमाण हैं। जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं । कालतः वे अनन्त उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं । द्रव्यतः वे मुक्त औदारिकशरीर अभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण हैं । विवेचन — ऊपर बद्ध और मुक्त प्रकारों से औदारिकशरीरों की संख्या का परिमाण बतलाया है। बद्ध—बंधे हुए। बद्ध उसे कहते हैं जो पृच्छा के समय जीव के साथ संबद्ध हैं और मुक्त वह है जिसे जीव पूर्वभवों में ग्रहण करके त्याग दिया है। यहां औदारिकशरीर के प्रकारों के विषय में पूछे जाने पर उत्तर में बद्ध और मुक्त कहने का कारण यह है कि बद्ध और मुक्त शरीरों की पृथक् पृथक् संख्या कही जाएगी और बद्ध तथा मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या कहीं द्रव्य से, कहीं क्षेत्र से तथा कहीं काल से (समय, आवलिका आदि से) कही जायेगी । भाव की विवक्षा द्रव्य के अंतर्गत कर लेने से उसकी अपेक्षा संख्या का कथन सूत्र में नहीं किया है। बद्ध औदारिकशरीरों की संख्या- बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं । यद्यपि बद्ध औदारिकशरीर के धारक जीव अनन्त हैं। क्योंकि औदारिकशरीर मनुष्यों और पृथ्वीकायिक आदि पांच प्रकार के एकेन्द्रियों से लगाकर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पाया जाता है। इनमें भी अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं । किन्तु औदारिकशरीरधारी जीव दो प्रकार के हैं— प्रत्येकशरीरी, २. अनन्तकायिक । प्रत्येकशरीर जीवों का अलग-अलग औदारिकशरीर होता है। उनकी संख्या असंख्यात है और जो अनन्तकायिक हैं, उनका औदारिकशरीर पृथक्-पृथक् नहीं होता। किन्तु अनन्त जीवों का एक ही होता है। इसलिए औदारिकशरीरी जीव अनन्तानन्त होते हुए भी उनके शरीरों की संख्या असंख्यात ही है। कालापेक्षया बद्ध औदारिकशरीरों की संख्या असंख्यात उत्सर्पिणियों और असंख्यात अवसर्पिणियों से अपहृत होने योग्य बताई है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक - एक औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए समस्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी व्यतीत हो जाएं। असंख्यात के असंख्यात भेद होने से असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी काल के समय असंख्यात हैं, अतएव बद्ध औदारिकशरीर भी असंख्यात ही हैं। क्षेत्रापेक्षया बद्ध औदारिक शरीरों की संख्या का प्रमाण बताने के लिए सूत्र में कहा है—बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात लोक-प्रमाण हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि समस्त बद्ध औदारिकशरीरों को अपनी-अपनी अवगाहना से परस्पर अपिंड रूप में (पृथक्-पृथक्) आकाशप्रदेशों में स्थापित किया जाए तो असंख्यात लोकाकाश दस कोडाकोडी सागरोपम काल का एक उत्सर्पिणी काल और उतने ही सागरोपमों का एक अवसर्पिणी काल होता है। १.
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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