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शरीर ।
अनुयोगद्वारसूत्र
४०९. वेंदिय-तेंदिय- चउरिदियाणं जहा पुढवीकाइयाणं ।
[ ४०९] पृथ्वीकायिक जीवों के समान द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी ( औदारिक, तैजस, कार्मण, यह तीन शरीर) जानना चाहिए।
४१०. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जहा वाउकाइयाणं ।
[४१० प्र.] पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ?
[४१० उ.] गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के शरीर वायुकायिक जीवों के समान जानना चाहिए। अर्थात् इनके भी औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं।
४११. मणूसाणं जाव गो० ! पंच सरीरा पन्नत्ता । तं०—– ओरालिए वेडव्विए आहारए यए कम्मए ।
[ ४११] गौतम! मनुष्यों के पांच शरीर कहे गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं— औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर ।
४१२. वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं, वेडव्विय - तेयग- कम्मगा तिन्नि तिन्नि सरीरा भाणियव्वा ।
[ ४१२] वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के नारकों के समान वैक्रिय, तैजस और कार्मण ये तीनतीन शरीर होते हैं।
विवेचन — ऊपर चौबीस दंडकवर्ती जीवों में पाये जाने वाले शरीरों की प्ररूपणा की है। तैजस और कार्मण शरीर तो सभी संसारी जीवों में होते ही हैं। उनके अतिरिक्त मनुष्यों और तिर्यंचों में भवस्वभाव से औदारिक और देव- नारकों में वैक्रियशरीर होते हैं। आहारकशरीर मनुष्यों को लब्धिविशेष से प्राप्त होता है और किन्हीं विशिष्ट मनुष्यों के ही होता है। यहां सामान्य रूप से ही मनुष्यों में उसके होने का निर्देश किया है।
वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों में जो वैक्रियशरीर का सद्भाव कहा है, उसका तात्पर्य यह है कि वैक्रियशरीर जन्मसिद्ध और कृत्रिम दो प्रकार का है। जन्मसिद्ध वैक्रियशरीर देवों और नारकों के ही होता है। अन्य के नहीं और कृत्रिम वैक्रिय का कारण लब्धि है। लब्धि एक प्रकार की शक्ति है, जो कतिपय गर्भज मनुष्यों और तिर्यंचों में भी संभावित है तथा कुछ बादर वायुकायिक जीवों में भी वैक्रियशरीर पाया जाता है। इसलिए वायुकायिक जीवों में चार शरीरों के होने का विधान किया है।
पांच शरीरों का संख्यापरिमाण
४१३. केवतिया णं भंते ! ओरालियसरीरा पण्णत्ता ?
गो० ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—- बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी- ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो असंखेज्जा लोगा । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणी