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________________ ३१४ अनुयोगद्वारसूत्र इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं ___ औदारिकशरीर— इसमें मूल शब्द 'उदार' है। शास्त्रों में 'उदार' के तीन अर्थ बताये हैं—१. जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान है। औदारिकशरीर की प्रधानता तीर्थंकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए। अथवा औदारिक शरीर से मुक्ति प्राप्त होती है एवं औदारिक शरीर में रहकर ही जीव मुक्तिगमन में सहायक उत्कृष्ट संयम की आराधना कर सकता है। इस कारण उसे प्रधान माना गया है। २. उदार अर्थात् विस्तारवान्—विशाल शरीर। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन की है, जबकि वैक्रियशरीर का इतना प्रमाण नहीं है। उसकी अधिक से अधिक अवगाहना पांच सौ धनुष की है और वह मात्र सातवीं नरकपृथ्वी के नारकों की होती है, अन्य की नहीं। यद्यपि उत्तरवैक्रियशरीर एक लाख योजन तक का होता है, किन्तु वह भवान्त पर्यन्त स्थायी नहीं होता। अथवा शेष शरीरों की वर्गणाओं की अपेक्षा औदारिक शरीर की वर्गणाओं की अवगाहना अधिक है। इसलिए यह उदार-विस्तारवान् है। ३. उदार का अर्थ होता है—मांस, हड्डियों, स्नायु आदि से बद्ध शरीर। मांसमज्जा आदि सप्त धातु-उपधातुएं औदारिकशरीर में ही होती हैं। इस शरीर के स्वामी मनुष्य और तिर्यंच हैं। वैक्रियशरीर— विविध क्रियाओं को करने में सक्षम शरीर अथवा विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया करने वाला शरीर वैक्रिय कहलाता है। प्राकृत में वेउव्विए' शब्द है, जिसका संस्कृत रूप 'वैकुर्विक' होता है। विकुर्वणा के अर्थ में विकु धातु से वैकुर्विक शब्द बनता है। यह वैक्रियशरीर दो प्रकार का है—लब्धिप्रत्ययिक और भवप्रत्ययिक। तपोविशेष आदि विशिष्ट निमित्तों से जो प्राप्त हो उसे लब्धिप्रत्ययिक और जो भव-जन्म के निमित्त से प्राप्त हो उसे भवप्रत्ययिक वैक्रियशरीर कहते हैं। लब्धिजन्य मनुष्यों और तिर्यंचों को तथा भवजन्य देव-नारकों को होता है। ___आहारकशरीर— चतुर्दशपूर्वविद् मुनियों के द्वारा विशिष्ट प्रयोजन के होने पर योगबल से जिस शरीर कर निर्माण किया जाता है अथवा जिसके द्वारा केवलज्ञानी के सामीप्य से सूक्ष्म पदार्थ सम्बन्धी शंकाओं का समाधान प्राप्त किया जाता है, उसे आहारकशरीर कहते हैं। आहारकऋद्धि संपन्न अपने क्षेत्र में केवलज्ञानी का अभाव होने और दूसरे क्षेत्र में उनके विद्यमान होने किन्तु उस क्षेत्र में औदारिकशरीर से पहुंचना संभव नहीं होने से इस शरीर को निष्पन्न करते हैं। इसका निर्माण प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती मुनि करते हैं। तैजसशरीर— जो शरीर में दीप्ति और प्रभा का कारण हो। तेजोमय होने से भक्षण किये गये भोजनादि के परिपाक का कारण हो अथवा तेज का विकार हो उसे तैजसशरीर कहते हैं। यह सभी संसारी जीवों में पाया जाता है। यह दो प्रकार का है—निःसरणात्मक और अनि:सरणात्मक। अनि:सरणात्मक तैजसशरीर भुक्त अन्न-पान आदि का पाचक होकर शरीरान्तर्वर्ती रहता है तथा औदारिक, वैक्रिय और आहारकशरीरों में तेज, प्रभा, कांति का निमित्त है। निःसरणात्मक तैजस शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। शुभ तैजस सुभिक्ष, शांति आदि का कारण बनता है और अशुभ इसके विपरीत स्वभाव वाला है। यह शरीर तैजसलब्धिप्रत्ययिक होता है। कार्मणशरीर— अष्टविध कर्मसमुदाय से जो निष्पन्न हो, औदारिक आदि शरीरों का जो कारण हो तथा जो .. जीव के साथ परभव में जाए वह कार्मणशरीर है। पांच शरीरों का क्रमनिर्देश- औदारिक आदि शरीरों का क्रमविन्यास करने का कारण उनकी उत्तरोत्तर
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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