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प्रमाणाधिकारनिरूपण
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[४०४ प्र.] भगवन्! क्या जीवद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [४०४ उ.] गौतम ! जीवद्रव्य संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा जाता है कि जीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त
[उ.] गौतम! अनन्त कहने का कारण यह है—असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार यावत् असंख्यात स्तनितकुमार देव हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक जीव हैं यावत् असंख्यात वायुकायिक जीव हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक जीव हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं यावत् असंख्यांत चतुरिन्द्रिय, असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यंतर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनन्त सिद्ध जीव हैं। इसीलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं।
विवेचन— यहां जीवद्रव्य की अनन्तता का वर्णन किया गया है।
जो जीता था, जीता है और जीयेगा, इस प्रकार के कालिक जीवनगुणयुक्त द्रव्य को जीव कहते हैं। अर्थात् जो ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राणों से अथवा भावप्राणों के साथ इन्द्रियादि रूप द्रव्यप्राणों से जीता था, जीता है और जियेगा वह जीव है।
जीव दो प्रकार के हैं—मुक्त और संसारी। मुक्त जीव ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राणों से ही युक्त हैं किन्तु संसारी जीव द्रव्यप्राणों की अल्पाधिकता एवं गति, शरीर आदि की विभिन्नता के कारण अनेक प्रकार के हैं। फिर भी सामान्यतः संसारी जीवों के मुख्य दो प्रकार हैं—त्रस और स्थावर । त्रसनामकर्मोदय से प्राप्त इन्द्रियादि प्राणों से युक्त जीव त्रस और स्थावरनामकर्म के उदय से प्राप्त इन्द्रियादि प्राणों से युक्त जीव स्थावर कहलाते हैं।
संसारी जीवों की संख्या अनन्त है, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं और अकेले मुक्त जीव भी अनन्त हैं। इसीलिए सामान्यतः जीवद्रव्यों की संख्या अनन्त बताई है।
संसारी जीवों की जो-जो संख्या सामान्य रूप से कही गई, वे सभी शरीरधारी हैं अतः अब उनके शरीरों का वर्णन करते हैं। शरीरनिरूपण
४०५. कति णं भंते ! सरीरा प० ? गो० ! पंच सरीरा पण्णत्ता । तं जहा–ओरालिए वेउव्विए आहारए तेयए कम्मए । [४०५ प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
[४०५ उ.] गौतम! शरीर पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा—१. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आहारक,.४. तैजस, ५. कार्मण।
विवेचन— उक्त प्रश्नोत्तर में शरीर के पांच भेदों का नामोल्लेख किया गया है।
शरीर- जो शीर्ण-जर्जरित होता है अर्थात् उत्पत्तिसमय से लेकर निरन्तर जर्जरित होता रहता है उसे शरीर कहते हैं। संसारी जीवों के शरीर की रचना शरीरनामकर्म के उदय से होती है। शरीरनामकर्म कारण है और शरीर कार्य है। औदरिक आदि वर्गणाएँ उनका उपादानकारण हैं और औदारिकशरीरनामकर्म आदि निमित्तकारण हैं।