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अनुयोगद्वारसूत्र उसमें प्रदेशप्रचय नहीं है। उसका अपने रूप में एकप्रदेशात्मक (समयात्मक) अस्तित्व है। इसी कारण सूत्र में काल को छोड़कर शेष अरूपी द्रव्यों के तीन-तीन भेद कहे गए हैं। पुद्गलास्तिकाय रूपी है और इसके चार भेद हैं। इस प्रकार अजीवद्रव्यों के अवान्तर भेद सब मिल कर चौदह होते हैं। , अरूपी अजीवद्रव्य के दस प्रकार नयविवक्षाओं से कहे गये हैं। विस्तृत विवेचन इस प्रकार है
यद्यपि धर्मास्तिकाय मूलतः एक द्रव्य है किन्तु संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय इन तीनों नयों की विवक्षा के भेद से भेद हो जाता है। इन तीनों नयों का अभिप्राय अलग-अलग है। संग्रहनय धर्मास्तिकाय को एक ही द्रव्य मानता है। व्यवहारनय उस द्रव्य के देश और ऋजुसूत्रनय उसके निर्विभाग रूप प्रदेश मानता है। संग्रहनय वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करता है। व्यवहारनय वस्तुगत विशेष अंशों को स्वीकार करता है और ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वर्तमानवर्ती अवस्था ही वस्तु है। व्यवहारनय की मान्यता है कि जिस प्रकार संपूर्ण धर्मास्तिकाय जीव, पुद्गल की गति में सहायक निमित्त बनता है, उसी प्रकार से उसके देश-प्रदेश भी जीव और पुद्गल की गति में निमित्त होते हैं। इसी कारण वे भी पृथक् द्रव्य हैं। ऋजुसूत्रनय की मान्यता है कि केवलिप्रज्ञाकल्पित प्रदेश रूप निर्विभाग भाग ही स्वसामर्थ्य से जीव और पुद्गल की गति में निमित्त होते हैं। अतएव वे स्वतन्त्र द्रव्य हैं। ___इसी प्रकार से अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के तीन-तीन प्रकारों के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
अद्धासमय को एक ही मानने का कारण यह है कि निश्चयनय के मत से वर्तमान काल रूप 'समय' का ही परमार्थतः सत्त्व है, अतीत-अनागत का नहीं। क्योंकि अनागत अनुत्पन्न है और अतीत विनष्ट हो चुका है। इसलिए उसमें देश, प्रदेश रूप विशेष नहीं हो सकते।
रूपी अजीवद्रव्य पुद्गल के चार भेदों में से स्कन्ध के बुद्धिकल्पित दो भाग, तीन भाग आदि देश हैं। व्यणुक से लेकर अनंताणुक पर्यन्त सब स्कन्ध ही हैं। स्कन्ध के अवयवभूत निर्विभाग भाग प्रदेश हैं तथा जो स्कन्धदशा को प्राप्त नहीं हैं—स्वतन्त्र हैं, ऐसे निरंश पुद्गल 'परमाणु' कहलाते हैं। ये सभी स्कन्धादि भी प्रत्येक अनन्त-अनन्त हैं। ___इस प्रकार अजीवद्रव्य का वर्णन करके अब जीवद्रव्य का वर्णन करते हैं। जीवद्रव्यप्ररूपणा
४०४. जीवदव्वा णं भंते ! किं संखेज्जा असंखेज्जा अणंता ? गो० ! नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवदव्वा णं नो संखेजा नो असंखेजा अणंता ?
गोयमा ! असंखेजा णेरड्या, असंखेज्जा असुरकुमारा जाव असंखेजा थणियकुमारा, असंखेजा पुढवीकाइया जाव असंखेजा वाउकाइया, अणंता वणस्सइकाइया, असंखेजा बेंदिया जाव असंखेजा चउरिंदिया, असंखेजा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया असंखेजा मणूसा, असंखेजा वाणमंतरिया, असंखेजा जोइसिया, असंखेजा वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से एएणं अटेणं गोतमा ! एवं वुच्चइ जीवदव्वा णं नो संखेज्जा, नो असंखेजा, अणंता ।