SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ अनुयोगद्वारसूत्र (९) विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइकालं ठिती पण्णत्ता ? गो० ! जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । सव्वट्ठसिद्धे णं भंते ! महाविमाणे देवाणं केवइकालं ठिती पण्णत्ता ? गो० ! अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाइं । से तं सुहुमे अद्धापलिओवमे । से तं अद्धापलिओवमे । [३९१-९ प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [३९१-९ उ.] गौतम ! जघन्य इकतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। [प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देवों के स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.] गौतम! उनकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। इस प्रकार से सूक्ष्म अद्धापल्योपम के अभिधेय का वर्णन करने के साथ अद्धापल्योपम का निरूपण पूर्ण हुआ। विवेचन- ऊपर कल्पातीत देवलोकों के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया है। ये देवलोक दो वर्गों में विभक्त हैं—प्रैवेयक और अनुत्तर विमान। 'ग्रैंवेयक' नाम का कारण यह है कि पुरुषाकार लोक के ग्रीवा रूप स्थान में ये अवस्थित हैं तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध महाविमान सर्वोत्तम होने के कारण 'अनुत्तर' कहलाते हैं। ___अनुत्तर विमानों का तो पृथक्-पृथक् नामनिर्देश किया है, वैसा ग्रैवेयक विमानों का नामोल्लेख नहीं किया है। लेकिन शास्त्रों में अधस्तनत्रिक, मध्यमत्रिक और उपरितनत्रिक के नाम इस प्रकार बताये हैं—अधस्तनत्रिकभद्र, सुभद्र, सुजात, मध्यमत्रिक—सौमनस, प्रियदर्शन, सुदर्शन, उपरितात्रिक—अमोह, सुमति, यशोधर । सर्वार्थसिद्ध महाविमान के अतिरिक्त शेष देवलोकों में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है। लेकिन सर्वार्थसिद्ध. महाविमान में यह भेद नहीं होने से वहां तेतीस सागरोपम की ही स्थिति है। इसी का बोध कराने के लिए सूत्र में 'अजहण्णमणुक्कोसं' पद दिया है। यहां पर्याप्तकों की अपेक्षा व्यंतरों से लेकर वैमानिक देवों तक की स्थिति का वर्णन किया गया है, लेकिन इन सभी की अपर्याप्त अवस्था भावी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की समझना चाहिए। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् वे अवश्य पर्याप्तक हो जाते हैं। इस प्रकार से अद्धापल्योपम का वर्णन करने के बाद अब क्षेत्रपल्योपम का कथन करते हैं। क्षेत्रपल्योपम का निरूपण ३९२. से किं तं खेत्तपलिओवमे ? खेत्तपलिओवमे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—सुहुमे य वावहारिए य । [३९२ प्र.] भगवन् ! क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ?
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy