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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३०१ [३९०-५ उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति अर्धपल्योपम की होती है। [प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमानों की देवियों की स्थिति का प्रमाण क्या है ? [उ.] गौतम! उनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति साधिक पल्योपम का चतुर्थ भाग प्रमाण है। (६) ताराविमाणाणं भंते ! देवाणं जाव गो०! जह० सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं उक्को० चउभागपलिओवमं । ताराविमाणाणं भंते ! देवीणं जाव गो० ! जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं उक्को० सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं । [३९०-६ प्र.] भगवन् ! ताराविमानों के देवों की स्थिति कितने काल की है ? [३९०-६ उ.] गौतम! कुछ अधिक पल्योपम का अष्टमांश भाग जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग है। [प्र.] भगवन् ! ताराविमानों की देवियों की स्थिति का काल कितना है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट स्थिति साधिक पल्योपम का आठवां भाग है। विवेचन– उपर्युल्लिखित प्रश्नोत्तरों में ज्योतिष्क देवनिकाय के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है। सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये ज्योतिष्क देवों के पांच प्रकार हैं। इन पांचों के समुदाय को सामान्य भाषा में ज्योतिष्कमंडल कहते हैं। इनका अवस्थान हमारे इस समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाकर नौ सौ योजन तक के अन्तराल में है। जिसका क्रम इस प्रकार है—समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर ताराओं के विमान हैं। ये सब ज्योतिष्क देवों के विमानों से अधोभाग में स्थित हैं। इससे दस योजन ऊपर सूर्यविमान है, इससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रविमान है, इससे चार योजन ऊपर अश्वनी, भरणी आदि नक्षत्रों के विमान हैं, इनसे चार योजन ऊपर बुधग्रह का, इससे तीन योजन ऊपर शुक्रग्रह का, इससे तीन योजन ऊपर बृहस्पतिग्रह का, इससे तीन योजन ऊपर मंगलग्रह का और इससे तीन योजन ऊपर शनिग्रह का विमान है। यह ज्योतिष्क देवों से व्याप्त नभ:प्रदेश एक सौ दस योजन मोटा और घनोदधिवातवलय पर्यन्त असंख्यात द्वीप-समुद्र पर्यन्त लम्बा है। ये ज्योतिष्क देव मनुष्यलोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरंतर गतिशील हैं। जो मेरुपर्वत से चारों ओर ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रहकर गोलाई में विचरण करते हैं। इनकी इस निरंतर गमनक्रिया के द्वारा मनुष्यक्षेत्र में दिन-रात्रि आदि का कालविभाग होता है। मनुष्यक्षेत्र से बाहर के ज्योतिष्क देवों के विमान अवस्थित रहते हैं। वे गतिशील नहीं है। ___पुष्करवरद्वीप के मध्यभाग में स्थित मानुषोत्तरपर्वत के भीतर का क्षेत्र मनुष्यक्षेत्र कहलाता है। मानुषोत्तरपर्वत की एक बाजू से लेकर दूसरी बाजू तक कुल मिलाकर विस्तार पैंतालीस लाख योजन है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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