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________________ ३०२ अनुयोगद्वारसूत्र वैमानिक देवों की स्थिति ३९१. (१) वेमाणियाणं भंते ! देवाणं जाव गो० ! जहणणेणं पलिओवमं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई । वेमाणीणं भंते! देवीणं जाव गो० ! जह० पलिओवम उक्को० पणपण्णं पलिओवमाई । [३९१-१ प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [३९१ - १ उ.] गौतम ! वैमानिक देवों की स्थिति जघन्य एक पल्य की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। [प्र.] भगवन् ! वैमनिक देवियों की स्थिति कितनी है ? [उ.] गौतम ! वैमानिक देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन (५५) पल्योपम की है। विवेचन-- ऊपर के प्रश्नोत्तरों में सामान्य से वैमानिक देवों और देवियों की जघन्यतम और उत्कृष्टतम स्थिति का प्रमाण बतलाया है। शास्त्र में देवों की सामान्य से जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष बतलाई है, किन्तु यहां वैमानिक देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की बताने पर यह शंका हो सकती है कि देवगति वाले होने पर भी इन वैमानिक देवों की जघन्य स्थिति का पृथक् से निर्देश करने का क्या कारण है ? इसका उत्तर यह है कि वैमानिक देव चतुर्विध देवनिकायों में विशुद्धतर लेश्या - परिणाम- द्युति आदि से संपन्न हैं । इनकी अपेक्षा भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क देव विशुद्धि आदि में हीन हैं। अतएव वैमानिक देवों की पृथक् रूप से जघन्य स्थिति का निर्देश किया है। देवों की जो जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष बताई है, वह भवनपति और व्यंतर देवों की होती है और ये भवनपति व व्यंतर भी देवगति व देवायु वाले हैं। अतएव जब सामूहिक रूप में देवगति की जघन्य स्थिति का कथन करते हैं तो वह दस हजार वर्ष की बताई जाती है। सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के देव इन्द्र आदि दस भेदों की कल्पना होने से कल्पोपपन्न और इनके ऊपर ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव उक्त प्रकार की कल्पना न होने से कल्पातीत संज्ञा वाले हैं। यहां जो जघन्य स्थिति एक पल्योपम की बताई है, वह पहले सौधर्म देवों की अपेक्षा से है और तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति सर्वार्थसिद्ध देवों की होती है। अब अनुक्रम से एक-एक कल्प और कल्पातीत देवों की स्थिति का वर्णन करते हैं। सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त कल्पों की स्थिति (२) सोहम्मे णं भंते! कप्पे देवाणं केवतिकालं ठिती प० ? गो० ! जह० पलिओवमं उक्कोसेणं दोन्नि सागरोवमाई । सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवीणं जाव गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई । सोहम्मे णं भंते ! कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं जाव गो० ! जह० पलिओवमं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओमाई । [३९१ - २ प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प के देवों की स्थिति कितने काल की है ?
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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