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प्रमाणाधिकारनिरूपण
२९३ स्थिति अन्तर्मुहूर्तन्यून पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण जानना चाहिए।
सामान्य से गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष जितनी है।
अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है।
पर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष की है।
विवेचन- यहां जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों की स्थिति का वर्णन किया है। पानी के अंदर रहने वाले जीवों को जलचर कहते हैं। ये दो प्रकार के हैं—सम्मूच्छिम और गर्भज। दिशा-विदिशा आदि से इधर-उधर से शरीरयोग्य पुद्गलों का ग्रहण होकर शरीराकार रूप परिणत हो जाने को सम्मूछिम जन्म और स्त्री के उदर में शुक्रशोणित के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं। इस गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज कहलाते हैं। यह जन्मभेद मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचगति के जीवों में पाया जाता है। इनमें कोई पर्याप्तक होते हैं और कोई अपर्याप्तक। इसीलिए तिर्यंच पंचेन्द्रिय के भेद जलचर जीवों की स्थिति सम्मूछिम और गर्भज तथा इन दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेदों की अपेक्षा पृथक्-पृथक् बतलाई है।
__पूर्व का प्रमाण पहले बताया जा चुका है कि चौरासी लाख वर्ष को एक पूर्वांग कहते हैं और चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व कहलाता है। अंकों में जिसकी गणना का प्रमाण ७०५६०००००००००० वर्ष होता है। इस प्रकार के वर्ष प्रमाण वाले एक पूर्व के हिसाब से करोड़ पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों की होती है।
चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से स्थलचर तीन प्रकार के हैं। क्रम से उनकी स्थिति इस प्रकार
स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचों की स्थिति
(३) चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पन्नता ? गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिण्णि पलिओवमाइं ।
सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासीतिवाससहस्साडं ।
अपजत्तयसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जहन्नेणं अंतो० उक्को० अंतो० । ___पजत्तयसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासीतिवाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई ।
गब्भवक्कंतियचउप्पयथलयर० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिण्णि पलिओवमाइं ।
१.
पुव्वस्स हु परिमाणं सत्तरि खल कोडिदससहस्साई । छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं ॥
—सर्वार्थसिद्धि पृ. १६५ से उद्धृत