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अनुयोगद्वारसूत्र
[३८५-५ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? .... [३८५-५ उ.] गौतम ! सामान्य रूप से वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति दस हजाः वर्ष की होती है।
___सामान्य सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा उनके अपर्याप्तक और पर्याप्तक भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।
[प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतकायिक जीवों की कितनी स्थिति बताई है ?
[उ.] गौतम ! बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की कही है यावत् गौतम ! अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। किन्तु गौतम ! पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष की जानना चाहिए।
विवेचन– उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में पहले तो सामान्य से पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावरों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बताया है। किन्तु पृथ्वीकायिक आदि ये पांचों स्थावर सूक्ष्म और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं और ये प्रत्येक भेद भी अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक इन दो अवस्थाओं वाले होते हैं।
उक्त भेदों में से पांचों सूक्ष्म स्थावरों की औधिक, पर्याप्त और अपर्याप्त भेदों तथा बादर अपर्याप्तकों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, लेकिन पर्याप्त बादरों की उनके अपर्याप्तकाल की स्थिति कम करके शेष स्थिति इस प्रकार जानना चाहिएनाम जघन्य स्थिति
उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त
बाईस हजार वर्ष (अन्त० न्यून) अन्तर्मुहूर्त
सात हजार वर्ष (अन्त० न्यून) तेज अन्तर्मुहूर्त
तीन दिन-रात (अन्त० न्यून) वायु अन्तर्मुहूर्त
तीन हजार वर्ष (अन्त० न्यून) वनस्पति अन्तर्मुहूर्त
दस हजार वर्ष (अन्त० न्यून) सूक्ष्न और बादर अपर्याप्तक आदि की सामान्य से तथा जघन्य और उत्कृष्ट एवं इन्हीं के पर्याप्तक भेद की जघन्य स्थिति ठीक-ठीक परिमाण क्षुद्रभव रूप अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसका कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के बहुत भेद हैं और निगोदिया जीव के भव की आयु को क्षुद्रभव कहते हैं। क्योंकि सब भवों की अपेक्षा उसकी स्थिति अति अल्प होती है। इतनी स्थिति मनुष्य तिर्यंचों में संभव होने से मनुष्य और तिर्यंच की जघन्य स्थिति का ठीकठीक प्रमाण क्षुद्रभव रूप अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिए। विकलेन्द्रियों की स्थिति
३८६. (१) बेइंदियाणं जाव गो० जह० अंतो० उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि। अपजत्तय जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं । पज्जत्तयाणं जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि अंतोमुहत्तूणाई ।
पृथ्वी
अप
अंतोमुहत्तं । सामसुनूणाई ।