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विषयों पर भी चूर्णिकार ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जो सुप्रसिद्ध भाष्यकार रहे हैं, जिन्होंने अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर एक चूर्णि लिखी थी, उस चूर्णि को जिनदासगणिमहत्तर ने अक्षरशः उद्धृत किया है। प्रस्तुत चूर्णि में आचार्य ने अपना नाम भी दिया है। __चूर्णि के पश्चात् जैन मनीषियों ने आगम साहित्य पर संस्कृत में अनेक टीकाएं लिखी हैं। टीकाकारों में आचार्य हरिभद्रसूरि का नाम सर्वप्रथम है। वे प्राचीन टीकाकार हैं। हरिभद्रसूरि प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी आचार्य थे। उन्होंने अनेक आगमों की टीकाएं लिखी हैं। अनुयोगद्वार पर भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण टीका है, जो अनुयोगद्वारचूर्णि की शैली पर लिखी गई है। टीका के प्रारम्भ में उन्होंने सर्वप्रथम श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार कर अनुयोगद्वार पर विवृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है।५ अनुयोगवृत्ति का नाम उन्होंने शिष्यहिता दिया है। इस वृत्ति की रचना नन्दी विवरण के पश्चात् हुई है।६ मंगल आदि शब्दों का विवेचन नन्दीवृत्ति में हो जाने के कारण इसमें विवेचन नहीं किया है, ऐसा टीकाकार का मत है। आवश्यक शब्द पर निक्षेपपद्धति से चिन्तन किया है। श्रुत पर निक्षेपपद्धति से विचार कर टीकाकार ने चतुर्विध श्रुत के स्वरूप को आवश्यक विवरण से समझाने का सूचन किया है। स्कन्ध, उपक्रम आदि को भी निक्षेप की दृष्टि से समझाने के पश्चात् विस्तार के साथ आनुपूर्वी का प्रतिपादन किया है। आनुपूर्वी के अनुक्रम, अनुपरिपाटी, ये पर्यायवाची बताये हैं। आनुपूर्वी के पश्चात् द्विनाम से लेकर दशनाम तक का व्याख्यान किया गया है। प्रमाण पर चिन्तन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और समय से लेकर पल्योपम-सागरोपम तक का वर्णन किया गया है। भावप्रमाण के वर्णन में प्रत्यक्ष, अनुमान,
औपम्य, आगम, दर्शन, चारित्र नय और संख्या पर विचार किया है। ज्ञाननय और क्रियानय के समन्वय की उपयोगिता सिद्ध की गई है। ___अनुयोगद्वार पर दूसरी वृत्ति मलधारी आचार्य हेमचन्द्र की है। आचार्य हेमचन्द्र महान् प्रतिभा सम्पन्न और आगमों के समर्थ ज्ञाता थे। यह वृत्ति सूत्रस्पर्शी है। सूत्र के गुरु गम्भीर रहस्यों को इसमें प्रकट किया गया है। वृत्ति के प्रारम्भ में श्रमण भगवान् महावीर को, गणधर गौतम प्रभृति आचार्यवर्ग को एवं श्रुत देवता को नमस्कार किया है।
वृत्तिकार ने इस बात का स्पष्टीकरण किया है कि प्राचीन मेधावी आचार्यों ने चूर्णि व टीकाओं का निर्माण किया है। उनमें उन आचार्यों का प्रकाण्ड पाण्डित्य झलक रहा है। तथापि मैंने मन्दबुद्धि व्यक्तियों के लिए इस पर
-अनुयोगद्वारचूर्णि
९३. गणधरवाद पं. दलसुख मालवणिया, पृष्ठ २११ ९४. श्री श्वेताम्बराचार्य श्री जिनदासगणिमहत्तर
पूज्यपादानामनुयोगद्वाराणां चूर्णिः प्रणिपत्य जिनवरेन्द्रं त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् ।
अनुयोगद्वाराणां प्रकटार्था विवृत्तिमभिधास्ये ॥ ९६. नन्द्यध्ययनव्याख्यानसमनन्तरमेवानुयोगद्वाराध्ययनावकाशः । ९७. विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता ।
मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥ क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यत् स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥
[३१]
—अनुयोगद्वारवृत्ति १ -अनुयोगद्वारवृत्ति , पृष्ठ १
—अनुयोगद्वारवृत्ति, पृष्ठ १२६, १२७