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प्रद्युम्नक्षमाश्रमण थे। उनके पिता का नाम नाग था- और माता का नाम गोपा था।
जिनदासमहत्तर के जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। नन्दीचूर्णि के अन्त में उन्होंने जो अपना परिचय दिया है, वह बहुत ही अस्पष्ट है। उत्तराध्ययनचूर्णि में उन्होंने अपने गुरु के नाम का एवं कुल, गण और शाखा का उल्लेख किया है, पर स्वयं के नाम का उल्लेख नहीं किया। निशीथचूर्णि के प्रारम्भ में उन्होंने प्रद्युम्न क्षमाश्रमण का विद्यागुरु के रूप में उल्लेख किया है। निशीथचूर्णि के अन्त में उन्होंने अपना परिचय रहस्य शैली में दिया है। वे लिखते हैं, अकारादि स्वरप्रधान वर्णमाला को एक वर्ग मानने पर अवर्ग से सवर्ग तक आठ वर्ग बनते हैं। प्रस्तुत क्रम से तृतीय 'च' वर्ग का तृतीक्ष अक्षर 'ज', चतुर्थ 'ट' वर्ग का पंचम अक्षर 'ण', पंचम 'त' वर्ग का तृतीय अक्षर 'द', अष्टम वर्ग का तृतीय अक्षर 'स' तथा प्रथम 'अ' वर्ग की मात्रा 'इकार' द्वितीय मात्रा 'आकार' को क्रमशः 'ज' और 'द' के साथ मिला देने पर जो नाम होता है, उसी नाम को धारण करने वाले व्यक्ति ने प्रस्तुत चूर्णि का निर्माण किया है।९२
___ अनुयोगद्वारचूर्णि के रचयिता जिनदासगणिमहत्तर ही हैं। उनका समय विक्रम संवत् ६५० से ७५० के मध्य है। क्योंकि नन्दीचूर्णि की रचना वि.सं. ७३३ में हुई है।
अनुयोगद्वारचूर्णि मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए लिखी गई है। इस चूर्णि में प्राकृत भाषा का ही मुख्य रूप से प्रयोग हुआ है। संस्कृत भाषा का प्रयोग अति अल्प मात्रा में हुआ है। इसमें आराम, उद्यान, शिविका प्रभृत शब्दों की व्याख्या है। प्रारम्भ में मंगल के सम्बन्ध में भावनन्दी का स्वरूपविश्लेषण करते हुए ज्ञान के पांच भेदों पर चिन्तन न कर यह लिखा है कि इस पर हम नन्दीचूर्णि में व्याख्या कर चुके हैं। अतः उसका अवलोकन करने हेतु प्रबुद्ध पाठकों को सूचन किया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारचूर्णि, नन्दीचूर्णि के पश्चात् लिखी गई। अनुयोगविधि और अनुयोगार्थ पर चिन्तन करते हुए आवश्यक पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। आनुपूर्वी पर विवेचन करते हुए कालानुपूर्वी का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए उन्होंने पूर्वांगों का परिचय दिया है। सप्त स्वरों का संगीत की दृष्टि से गहराई से चिन्तन किया है। वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, वीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त इन नौ रसों का सोदाहरण निरूपण है। आत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रामाणांगुल, कालप्रमाण, मनुष्य आदि प्राणियों का प्रमाण गर्भज आदि मानवों की संख्या आदि पर विवेचन किया गया है। ज्ञान और प्रमाण, संख्यात-असंख्यात, अनन्त आदि
—निशीथविशेषचूर्णि, पीठिका २
—निशीथविशेषचूर्णि, उद्देशक १३
—निशीथविशेषचूर्णि, उद्देशक १५
८७. सविसेसायरजुत्तं काउ पणामं च अत्थदायिस्स ।
पज्जुण्णखमासमणस्स चरण-करणाणुपालस्स ॥ ८८. संकरजडमउडविभूसणस्स तण्णामसरिसणामस्स ।
तस्स सुतेणेस कता विसेसचुण्णी णिसीहस्स ॥ ८९. रविकरमभिधाणक्खरसत्तमवग्गंत-अक्खरजुएणं ।
णामं जस्सित्थिए सुतेण तिसे कया चुण्णी ॥ णि रे ण ग म त ण ह स दा जि या पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला ।
कमट्ठिता धीमतचिंतियक्खरा फुडं कहेयंतऽभिधाण कत्तुणो ॥ ९१. उत्तराध्ययनचूर्णि १, २, ३ ९२. ति चउ पण अट्ठमवग्गे ति तिग अक्खरा व तेसिं । पढमततिएही तिदुसरजुएही णामं कयं जस्स ॥
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-नन्दीचूर्णि १
-निशीथचूर्णि