________________
वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति ग्रन्थकार की प्रौढ रचना है। कृति के अध्ययन से ग्रन्थकार की गहन अध्ययनशीलता का अनुभव होता है। आगम के मर्मस्पर्शी विवेचन से यह स्पष्ट है कि आचार्य आगम के एक मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनकी प्रस्तुत वृत्ति अनुयोगद्वार की गहनता को समझाने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। आचार्य हरिभद्र की टीका अत्यन्त संक्षिप्त थी और वह मुख्य रूप से प्राकृत चूर्णि का ही अनुवाद थी। आचार्य हेमचन्द्र ने सुविस्तृत टीका लिखकर पाठकों के लिए अनुयोगद्वार को सरल और सुग्राह्य बना दिया है। वृत्ति में यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों के श्लोक उद्धृत किए गए हैं। वृत्ति का ग्रन्थमान ५९०० श्लोक प्रमाण है। पर वृत्ति में रचना के समय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है।
संस्कृत टीका युग के पश्चात् लोक भाषाओं में बालावबोध की रचनाएँ प्रारम्भ हुईं, क्योंकि टीकाओं में दार्शनिक विषयों की चर्चाएं चरम सीमा पर पहुंच गई थीं। जनसाधारण उन विषयों को सहज रूप से नहीं समझ सकता था, अतः जनहित की दृष्टि से आगमों के शब्दार्थ करने वाले संक्षिप्त लोकभाषाओं में टब्बाओं का निर्माण किया। स्थानकवासी आचार्य मुनि धरमसिंहजी ने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे। टब्बे मूलस्पर्शी अर्थ को स्पर्श करते हैं। सामान्य व्यक्तियों के लिए ये बहुत ही उपयोगी हैं। अनुयोगद्वार पर भी एक टब्बा लिखा हुआ है।
___टब्बा के पश्चात् आगमों का अनुवादयुग प्रारम्भ हुआ। आचार्य अमोलक ऋषिजी म. ने स्थानकवासी परम्परामान्य बत्तीस आगमों का हिन्दी अनुवाद किया। उसमें अनुयोगद्वार भी एक है। यह अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। श्रमण संघ के प्रथम आचार्य आत्मारामजी म. ने आगमों के रहस्यों को समुद्घाटित करने हेतु अनेक आगमों पर हिन्दी में व्याख्याएं लिखीं। वे व्याख्याएं सरल, सरस और सुगम हैं। उन्होंने अनुयोगद्वार पर भी संक्षिप्त में विवेचन लिखा।
स्थानकवासी परम्परा के आचार्य घासीलालजी म. ने संस्कृत में विस्तृत टीकाएं लिखीं। उन टीकाओं का हिन्दी और गुजराती में अनुवाद भी किया। प्रायः उनके रचित बत्तीस आगमों की टीकाएं मुद्रित हो चुकी हैं। लेखक ने अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं। ___ इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र पर अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने कार्य किया है। जब प्रकाशनयुग प्रारम्भ हुआ तब सर्वप्रथम सन् १८८० में अनुयोगद्वारसूत्र मलधारी हेमचन्द्रकृत वृत्ति सहित रायबहादुर धनपतसिंह कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात् सन् १९१५-१६ में वही आगम देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बम्बई से प्रकाशित हुआ। पुनः सन् १९२४ में आगमोदय समिति बम्बई से वह वृत्ति प्रकाशित हुई और सन् १९३९-१९४० में केसरबाई ज्ञान मन्दिर पाटन से यह वृत्ति प्रकाशित हुई।
सन् १९२८ में अनुयोगद्वार हरिभद्रकृत वृत्ति सहित ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ।
वीर संवत् २४४६ में सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद ने अनुयोगद्वार, आचार्य अमोलक ऋषिजी द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद को प्रकाशित किया।
सन् १९३१ में श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स बम्बई ने उपाध्याय आत्मारामजी म. कृत हिन्दी अनुवाद का पूर्वार्ध प्रकाशित किया और उसका उत्तरार्ध मुरारीलाल चरणदास जैन पटियाला ने प्रकाशित किया।
[३२