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________________ २७८ अनुयोगद्वारसूत्र आगे करेंगे। ३७२. तत्थ णं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं आयामविक्खंभेणं जोयणं उ8 उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं । । से णं एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं सम्मढे सन्निचित्ते भरिए वालग्गकोडीणं । ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेजा, नो कुच्छेजा, नो पलिविद्धंसिजा णो पूइत्ताए हव्वमागच्छे जा । तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्ठिते भवति, से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिता । तं वावहारियस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥ १०७॥ [३७२] व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है-उत्सेधांगुल से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊंचा एवं कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला एक पल्य हो। उस पल्य को (सिर का मुंडन कराने के बाद) एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक सात दिन के उगे हुए बालारों से इस प्रकार ठसाठस भरा जाए कि फिर उन बालानों को अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, न वे सड़-गल सकें, न उनका विध्वंस हो, न उनमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो—सड़ें नहीं। तत्पश्चात् एक-एक समय में एक-एक बालाग्र का अपहरण किया जाए उन्हें बाहर निकाला जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप और निष्ठित (खाली) हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक उद्धारपल्योपम कहते हैं। ऐसे दस कोडाकोडी पल्योपमों का एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम होता है। १०७ विवेचन— यहां पल्योपम और सागरोपम के प्रथम भेद उद्धार पल्योपम और उद्धार सागरोपम के सूक्ष्म एवं व्यावहारिक इन दो भेदों में से व्यावहारिक भेद का वर्णन किया है। यहां पल्य की उपमा से वर्णन करने का कारण यह है कि धान्य के मापपात्र को सभी जानते हैं। प्रस्तुत में उत्सेधांगुल से निष्पन्न एक योजन प्रमाण की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाले पल्य को स्वीकार किया है। इससे अल्पाधिक परिमाण वाला पल्य उपयोगी नहीं है। जिसकी लम्बाई-चौड़ाई समान होती है, उसका व्यास (परिधि) कुछ अधिक तिगुनी होती है। इसलिए यहां पल्य का व्यास बताने के लिए पद दिया है 'तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं।' यहां किंचित् अधिक का तात्पर्य किंचित् न्यून षड्भागाधिक एक योजन तथा तीन योजन पूरे ग्रहण करने चाहिए। अर्थात् उस पल्य की परिधि किंचित् न्यून षड्भागाधिक तीन योजन प्रमाण होती है। उस पल्य को जिन बालारों से भरे जाने का कथन किया है, उनके लिए प्रयुक्त एगाहिय, बेहिय आदि विशेषणों का यह आशय है कि शिर का मुंडन कराने के पश्चात् एक दिन में जितने प्रमाण में बाल उग सकते हैं, बढ़ सकते हैं, उनके अग्रभागों की एकाहिक बालाग्र संज्ञा है। इसी प्रकार द्व्याहिक, व्याहिक आदि विशेषणों का अर्थ समझ लेना चाहिए और 'जाव...सत्तरत्तपरूढाणं' पद द्वारा यह स्पष्ट किया है कि सात से अधिक दिनों के बालानों से पल्य को न भरा जाए।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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