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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण २७९ वे बालाग्र पल्य में किस प्रकार से भरे जाएं ? इसके लिए दो विशेषण दिये हैं 'समटे सन्निचिते।' इनका आशय यह है कि वह पल्य इस प्रकार पूरित किया जाए कि उसका ऊपरी भाग का चरम प्रदेश भी बालागों से रहित न हो, वह खचाखच भरा हुआ हो और साथ ही इसी प्रकार से भरा जाए कि रंचमात्र भी स्थान खाली न रहे किन्तु निविड़ता से भरा जाए। वे बालाग्र ऐसी निविड़ता से भरे हुए हों कि आग उन्हें जला न सके, पवन उड़ा न सके, वे सड़-गल न सकें। द्रव्यलोकप्रकाश में कहा है वे केशाग्र इतनी सघनता से भरे हों कि यदि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाए तो भी वे जरा भी दब न सकें। उन बालानों को प्रतिसमय एक-एक करके निकालने पर जितने समय में वह पल्य पूरी तरह खाली हो जाए, उतने कालमान को एक व्यवहार उद्धारपल्योपम कहते हैं और ऐसे दस कोटि व्यवहार उद्धारपल्योपमों का एक उद्धारसागरोपम काल कहलाता है। द्रव्यलोकप्रकाश में लिखा है कि उत्तरकुरु के मनुष्यों का सिर मुंडा देने पर एक से सात दिन तक के अन्दर जो केशाग्र राशि उत्पन्न हो, यह समझना चाहिए। क्षेत्रविचार की सोपज्ञटीका में लिखा है कि देवकुरु, उत्तरकुरु में जन्मे सात दिन के मेष (भेड़) के उत्सेधांगुल प्रमाण रोम लेकर उनके सात बार आठ-आठ खण्ड करना चाहिए। इस प्रकार के खण्डों से उस पल्य को भरना चाहिए। __दिगम्बर साहित्य में एक दिन से सात दिन तक जन्मे हुए मेष बालानों का ही उल्लेख मिलता है। इस प्रकार से विभिन्न ग्रन्थों में बालाग्र विषयक पृथक्-पृथक् निर्देश हैं, तथापि उन सबके मूल आशय में कोई मौलिक अन्तर प्रतीत नहीं होता। ३७३. एतेहिं वावहारियउद्धारपलिओवम-सागरोवमेहिं किं पयोयणं ? एतेहिं वावहारियउद्धारपलिओवम-सागरोवमेहिं णस्थि किंचि पओयणं, केवलं पण्णवणा. पण्णविजति । से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे । __[३७३ प्र.] भगवन् ! इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? अथवा इनसे किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? _[३७३ उ.] आयुष्मन् ! इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है। ये दोनों केवल प्ररूपणामात्र के लिए हैं। यह व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप है। विवेचन- इस सूत्र में व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन के विषय में प्रश्नोत्तरं है। यहां जिज्ञासा होती है कि जब कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता तो फिर इनकी प्ररूपणा ही क्यों की गई ? उत्तर यह है कि प्रयोजन के दो प्रकार हैं साक्षात् और परम्परा । परम्परा रूप से तो प्रयोजन यह है कि व्यावहारिक-बादर पल्योपम आदि का स्वरूप समझ लेने पर ही सूक्ष्म पल्योपमादि की प्ररूपणा सरलता से समझ में आती है। इस प्रकार से सूक्ष्म की प्ररूपणा में उपयोगी होने से व्यावहारिक की प्ररूपणा निरर्थक नहीं है। किन्तु साक्षात् रूप से इसके द्वारा किसी वस्तु का कालमान ज्ञात नहीं किया जाता। अतः सूत्रकार ने उसकी विवक्षा न करके मात्र प्ररूपणायोग्य बतलाया है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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