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________________ २७० भाग में पांच राजू और शिरोभाग में एक राजू' है। यही शिरोभाग लोक का अन्त है । इस प्रकार की लम्बाई, चौड़ाई प्रमाण वाले लोक की आकृति दोनों हाथ कमर पर रखकर नाचते हुए पुरुष के समान है। इसीलिए लोक को पुरुषाकार संस्थान से संस्थित कहा है। इस लोक के ठीक मध्यभाग में एक राजू चौड़ा और चौदह राजू ऊंचा क्षेत्र त्रसनाड़ी कहलाता है। इसे त्रसनाड़ी कहने का कारण यह है कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक 'ससंज्ञक जीवों का यही वासस्थान है। अनुयोगद्वारसूत्र अब इस चौदह राजू प्रमाण वाले ऊंचे लोक के कल्पना से अधोदिशावर्ती लोकखंड का पूर्व दिशा वाला भाग जो कि अधस्तनभाग में साढ़े तीन राजू प्रमाण विस्तृत है और फिर क्रम से ऊपर की ओर हीयमान विस्तार वाला होता हुआ अर्धराजू प्रमाण एवं सता राजू ऊंचा है, को लेकर पश्चिम दिशा वाले पार्श्व में ऊपर का भाग नीचे की ओर और नीचे का भाग ऊपर की ओर करके इकट्ठा रख दिया जाये, फिर ऊर्ध्वलोक में भी समभाग करके पूर्व दिशावर्ती दो त्रिकोण रूप दो खण्ड हैं, जो कि प्रत्येक साढ़े तीन राजू ऊंचे होते हैं, उन्हें भी कल्पना में लेकर विपरीत रूप में अर्थात् दक्षिण भाग को उल्टा और उत्तर भाग को सीधा करके इकट्ठा रख दिया जाए। इसी प्रकार पश्चिम दिशावर्ती दोनों त्रिकोणों को भी इकट्ठा किया जाए, ऐसा करने पर लोक का वह अर्धभाग भी साढ़े तीन राजू का विस्तार वाला और सात राजू की ऊंचाई वाला होगा। तत्पश्चात् उस ऊपर के अर्धभाग को नीचे के अर्धभाग के साथ जोड़ दिया जाये। ऐसा करने पर लोक सात राजू ऊंचा और सात राजू चौड़ा घनरूप बन जाता है। इस लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई का परस्पर गुणा करने पर (७ x ७ x ७ = ३४३) तीन सौ तेतालीस राजू घनफल लोक का होता है। सिद्धान्त में जहां कहीं भी बिना किसी विशेषता के सामान्य रूप से श्रेणी अथवा प्रतर का उल्लेख हो वहां सर्वत्र इस घनाकार लोक की सात राजू प्रमाण श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिए । इसी प्रकार जहां कहीं भी सामान्य रूप से लोक शब्द आए, वहां इस घनरूप लोक का ग्रहण करना चाहिए । संख्यात राशि से गुणित लोक की संख्यातलोक, असंख्यात राशि से गुणित लोक की असंख्यातलोक तथा अनन्त राशि से गुणित लोक की अनन्तलोक संज्ञा है । यद्यपि अनन्तलोक के बराबर अलोक है और उसके द्वारा जीवादि पदार्थ नहीं जाने जाते हैं, तथापि वह प्रमाण इसलिए है कि उसके द्वारा अपना — अलोक का स्वरूप तो जाना ही जाता है । अन्यथा अलोकविषयक बुद्धि ही उत्पन्न नहीं हो सकती है। इस प्रकार से विभागनिष्पन्न एवं समस्त क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिए । कालप्रमाण प्ररूपण १. ३६३. से किं तं कालप्पमाणे ? कालप्पमा दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—पदेसनिष्फण्णे य विभागनिष्फण्णे य । [३६३ प्र.] भगवन् ! कालप्रमाण का क्या स्वरूप है ? मध्यलोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रों में सबसे अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र की पूर्व तटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी पश्चिम तटवर्ती वेदिका के अन्त को राजू का प्रमाण समझना चाहिए।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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