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अनुयोगद्वारसूत्र जाति में सर्वोत्कृष्ट होने के कारण इन्हें रत्न कहा जाता है। प्रस्तुत में उल्लिखित काकणीरत्न पार्थिव है और वह आठ सुवर्ण जितना भारी (वजन वाला) होता है। सुवर्ण उस समय का एक तोल था। इसका विवरण पूर्व में बताया जा चुका है। साथ ही उसके आकार—संस्थान आदि का उल्लेख करते हुए बताया है कि वह चारों ओर से सम होता है। उसकी आठ कर्णिकायें और बारह कोटियां होती हैं। प्रत्येक कोटि एक उत्सेधांगुल विष्कंभ प्रमाण' होती है।
काकणीरत्न विष को नष्ट करने वाला होता है । यह सदा चक्रवर्ती के स्कन्धाबार में स्थापित रहता है। इसकी किरणें बारह योजन तक फैलती हैं। जहां चंद्र, सूर्य, अग्नि आदि अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, ऐसी तमिस्रा गुफा में यह काकणी रत्न अंधकार को समूल नष्ट कर देता है।
'चउरंगुलप्पमाणा सुवण्णवरकागणी नेये ति' अर्थात् चतुरंगुल प्रमाण काकणीरत्न जानना चाहिए, ऐसा किसी-किसी ग्रन्थ में कहा गया है। लेकिन तथाविधि संप्रदाय की उपलब्धि न होने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता परन्तु प्रत्येक उत्सेधांगुल भगवान् महावीर के अर्धांगुल के बराबर होता है, यह निश्चित है और उससे हजार गुणा एक प्रमाणांगुल होता है। प्रमाणांगुल का प्रयोजन ___३६०. एतेणं पमाणंगुलेणं किं पओयणं ?
एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं कंडाणं पायालाणं भवणाणं भवणपत्थडाणं निरयाणं निरयावलियाणं निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणाणं विमाणावलियाणं विमाणपत्थडाणं टंकाणं कूडाणं सेलाणं सिहरीणं पब्भाराणं विजयाणं वक्खाराणं वासाणं वासहराणं वासहरपव्वयाणं वेलाणं वेइयाणं दाराणं तोरणाणं दीवाणं समुद्दाणं आयाम-विक्खंभ-उच्चत्तोव्वेह-परिक्खेवा मविजंति ।
[३६० प्र.] भगवन् ! इस प्रमाणांगुल से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है ?
[३६० उ.] आयुष्मन् ! इस प्रमाणांगुल से (रत्नप्रभा आदि नरक) पृथ्वियों की, (रत्नकांड आदि) कांडों की, पातालकलशों की, (भवनवासियों के) भवनों की, भवनों के प्रस्तरों की, नरकावासों की, नरकपंक्तियों की, नरक के प्रस्तरों की, कल्पों की, विमानों की, विमानपंक्तियों की, विमानप्रस्तरों की, टंकों की , कूटों की, पर्वतों की, शिखर वाले पर्वतों की, प्राग्भारों (नमित पर्वतों) की, विजयों की, वक्षारों की, (भरत आदि) क्षेत्रों की, (हिमवन् आदि) वर्षधर पर्वतों की, समुद्रों की, वेलाओं की, वेदिकाओं की, द्वारों की, तोरणों की, द्वीपों की तथा समुद्रों की लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि नापी जाती है।
विवेचन- लोक में तीन प्रकार के रूपी पदार्थ हैं—१. मनुष्यकृत, २. उपाधिजन्य और ३. शाश्वत। मनुष्यकृत पदार्थों की लंबाई, चौड़ाई आदि का माप आत्मांगुल के द्वारा जाना जाता है।
विष्कंभ शब्द का प्रयोग काकिणीरत्न की समचतुरस्रता का बोध कराने के लिए किया है कि इसका आयाम लम्बाई
और विष्कंभ-चौड़ाई समान है और प्रत्येक उत्सेधांगुल प्रमाण है। क्योंकि ऊंची करने पर जो कोटि अभी आयाम वाली-लम्बी है, वही तिरछी करने पर विष्कंभ वाली-चौड़ी हो जाती है। अतएव आयाम और विष्कंभ इनमें से किसी एक का निर्णय हो जाने पर दूसरा स्वयं निर्णीत हो जाता है। अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति, पत्र १७१