SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण २६७ पमाणंगुले एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ठ सोवण्णिए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए अहिगरणिसंठाणसंठिए पण्णत्ते, तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणं पमाणंगुलं भवति । [३५८ प्र.] भगवन् ! प्रमाणांगुल का क्या स्वरूप है ? [३५८ उ.] आयुष्मन् ! (परम प्रकर्ष रूप परिमाण को प्राप्त—सबसे बड़े अंगुल को प्रमाणांगुल कहते हैं।) भरतक्षेत्र पर अखण्ड शासन करने वाले चक्रवर्ती राजा के अष्ट स्वर्णप्रमाण, छह तल वाले, बारह कोटियों और आठ कर्णिकाओं से युक्त अधिकरण संस्थान (सुनार के एरण जैसे आकार वाले) काकणीरत्न की एक-एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण विष्कंभ (चौड़ाई) वाली है, उसकी वह एक कोटि श्रमण भगवान् महावीर के अर्धांगुल प्रमाण है । उस अर्धांगुल से हजार गुणा (अर्थात् उत्सेधांगुल से हजार गुणा) एक प्रमाणांगुल होता है। ३५९. एतेणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दो पाया दुवालस अंगुलाई विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ धणू, दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं । [३५९] इस अंगुल से छह अंगुल का एक पाद, दो पाद अथवा बारह अंगुल की एक वितस्ति, दो वितस्तियों की रत्लि (हाथ), दो रत्नि की एक कुक्षि होती है। दो कुक्षियों का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है। विवेचनइन दो सूत्रों में से पहले में प्रमाणांगुल का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बतला कर उसके यथार्थ मान का निर्देश किया है। इसी प्रसंग में चक्रवर्ती राजा का स्वरूप, उसके प्रमुख रत्न काकणी का प्रमाण और श्रमण भगवान् महावीर के आत्मांगुल का मान बता दिया है। इस तरह एक ही प्रसंग में अनेक वस्तुओं का निर्देश करके जिज्ञासुओं को सुगमता से बोध कराया है। प्रमाणांगुल का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ सुगम है। चक्रवर्ती राजा का लक्षण बताने के लिए 'एगमेगस्स' और 'चाउरंतचक्कवट्टिस्स' यह षष्ठी विभक्त्यन्त दो विशेषण दिये हैं। इनमें से एगमेगस्स विशेषण का अर्थ यह है कि एक समय में एक क्षेत्र में एक ही चक्रवर्ती राजा होता है, अधिक नहीं। ___ जम्बूद्वीप में कर्मभूमिक क्षेत्र भरत और ऐरवत ये दो हैं। इनके सिवाय शेष क्षेत्र अकर्मभूमिक (भोगभूमिक) हैं। उनमें शासक, शासित आदि व्यवस्था नहीं होती है। अतएव भरतक्षेत्रापेक्षा दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन तीन दिशाओं में फैले हुए लवणसमुद्र, उत्तर में हिमवन्पर्वत पर्यन्त तक पांच म्लेच्छ और एक आर्यखंड इस प्रकार छह खण्डों से मंडित सम्पर्ण भरतक्षेत्र को विजित कर एकछत्र शासन करने वाले राजा चातुरंतचक्रवर्ती कहलाते हैं। तीर्थंकरों की तरह चक्रवर्ती राजा भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के तीसरे, चौथे आरे में होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती सात एकेन्द्रिय और सात पंचेन्द्रिय, कुल चौदह रत्नों का स्वामी होता है। अपनी-अपनी . ऐवत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में फैले लवणसमुद्र और दक्षिण दिशा में शिखरी पर्वत पर्यन्त के ऐरवत क्षेत्र को विजित करने वाले समझना चाहिए।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy