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प्रमाणाधिकारनिरूपण
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एक देश से दूसरे देश में गमन करने रूप गति, शरीरावगाहना, परिग्रह-ममत्वभाव और अभिमान भावना उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर के देवों में हीन-हीन होती है। इसी कारण सौधर्मकल्प में देवों की शरीरावगाहना सात रत्नि प्रमाण है तो वह बारहवें अच्युतकल्प में जाकर तीन रनि प्रमाण रह जाती है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर शरीरावगाहना की हीनता का क्रम ग्रैवेयक से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान तक के कल्पातीत देवों के लिए भी जानना चाहिए।
'जहा सोहम्मयदेवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पाणं देवाणं पुच्छा भाणियव्वा जाव अच्चुयकप्पो' इस वाक्य में इस प्रकार के प्राश्निक पदों का समावेश किया गया है—'सणंकुमारे कप्पे देवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जा सा......।' इसी प्रकार से शेष कल्पों के नामों का उल्लेख करके उन-उनके प्रश्न की उद्भावना कर लेना चाहिए।
इस प्रकार से कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की शरीरागवगाहना का प्रमाण बतलाने के अनन्तर अब कल्पातीत वैमानिकों की शरीरावगाहना का निरूपण करते हैं।
(४) गेवेजयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ?
गो० ! गेवेजगदेवाणं एगे भवधारणिजए सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं दो रयणीओ।
[३५५-४ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयकदेवों की शरीरावगाहना कितनी है ?
[३५५-४ उ.] गौतम ! ग्रैवेयकदेवों के एकमात्र भवधारणीय शरीर ही होता है। उस शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना दो हाथ की होती है।
[५] अणुत्तरोववाइयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! अणुत्तरोववाइयदेवाणं एगे भवधारणिजए सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं एक्का रयणी ।
[३५५-५ प्र.] भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देवों के शरीर की कितनी अवगाहना होती है ??
[३५५-५ उ.] गौतम ! अनुत्तरविमानवासी देवों के एकमात्र भवधारणीय शरीर ही कहा गया है। उसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हाथ की होती है।
विवेचन- यहां ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देवों की अवगाहना का प्रमाण बतलाया है। ये देव उत्तरविक्रिया नहीं करते हैं, अतएव इनकी भवधारणीय शरीर की अवगाहना का ही प्रमाण बतलाया है।
चतुर्विध देवनिकायों की शरीरावगाहना के प्रमाण का सुगमता से बोध कराने वाला प्रारूप इस प्रकार हैक्रम देवनाम
भवधारणीय
उत्तरवैक्रिय जघन्य उत्कृष्ट
उत्कृष्ट १. भवनपति
अंगु.असं. भाग सात हाथ अंगु. सं. भाग एक लाख यो. . वाण-व्यंतर
अंगु.असं. भाग सात हाथ अंगु. सं. भाग एक लाख यो. १. गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः । -तत्त्वार्थसूत्र ४/२१
जघन्य