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________________ २६४ अनुयोगद्वारसूत्र जहा सणकुमारे तहा माहिंदे । बंभलोग - लंत सु भवधारणिजा जह० अंगुल० असं०, उक्को० पंच रयणीओ; उत्तरवेव्विया जहा सोहम्मे । महासुक्क - सहस्सारेसु भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगु० असं०, उक्कोसेणं चत्तारि रयणीओ; उत्तरवेव्विया जहा सोहम्मे । आणत-पाणत- आरण-अच्चुतेसु चउसु वि भवधारणिज्जा जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं तिणि रयणीओ; उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे । [३५५-३] सौधर्मकल्प के देवों की शरीरावगाहना विषयक प्रश्न की तरह ईशानकल्प छोड़कर शेष अच्युतकल्प तक के देवों की अवगाहना सम्बन्धी प्रश्न पूर्ववत् जानना चाहिए। उत्तर इस प्रकार है— सनत्कुमारकल्प में भवधारणीय जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह रत्नि प्रमाण है, उत्तरवैक्रिय अवगाहना सौधर्मकल्प के बराबर है । सनत्कुमारकल्प जितनी अवगाहना माहेन्द्रकल्प में जानना । ब्रह्मलोक और लातंक – इन दो कल्पों में भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना पांच रनि प्रमाण है तथा उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण सौधर्मकल्पवत् है । महाशुक्र 'और सहस्रार कल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार रनि प्रमाण है तथा उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना सौधर्मकल्प के समान है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत — इन चार कल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट तीन रत्नि की है। इनकी उत्तरवैक्रिय अवगाहना सौधर्मकल्प के ही समान है। विवेचन देवों के चार निकाय हैं—भवनपति, वाण- व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । इनमें से आदि के तीन निकाय इन्द्र आदि कृत भेदकल्पना पाये जाने से निश्चितरूपेण कल्पोपपन्न ही हैं। फिर भी रूढि से 'कल्प' शब्द का व्यवहार वैमानिकों के लिए ही किया जाता है। सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त के देवों इन्द्रादि भेद वाले होने से कल्पोपपन्न हैं और इनसे ऊपर ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्ध तक के विमानों में इन्द्रादि की कल्पना नहीं होने से वहां के देव कल्पातीत कहलाते हैं। उपर्युक्त सूत्र में कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के देवों की भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण जघन्य तथा उत्कृष्ट इन दोनों अपेक्षाओं से बतलाया है । इन सभी कल्पवासी देवों की उत्तरवैक्रिय जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना समान अर्थात् जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। यह उत्तरवैक्रिय उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण उनकी योग्यता—क्षमता की अपेक्षा से ही जानना चाहिए। लेकिन भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना में अन्तर है। इसका कारण यह है कि ऊपर-ऊपर के प्रत्येक कल्प में वैमानिक देवों की आयुस्थिति, प्रभाव, सुख, घुति - कांति, श्याओं की विशुद्धि, विषयों को ग्रहण करने की ऐन्द्रियक शक्ति एवं अवधिज्ञान की विशदता अधिक है । किन्तु स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः । तत्त्वार्थसूत्र ४/२७ १.
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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