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प्रमाणाधिकारनिरूपण
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[३५३] वाणव्यतरों की भवधारणीय एवं उत्तर वैक्रियशरीर की अवगाहना असुरकुमारों जितनी जानना चाहिए।
३५४. जहा वाणमंतराणं तहा जोतिसियाणं ।
[३५४] जितनी (भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय रूप) अवगाहना वाणव्यंतरों की है, उतनी ही ज्योतिष्क देवों की भी है।
विवेचन— इन दो सूत्रों में वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देवनिकायों की शरीरावगाहना का प्रमाण पूर्व में कथित असुरकुमारों की अवगाहना के अतिदेश द्वारा बतलाया है। जिसका तात्पर्य यह हुआ कि असुरकुमारों की जो भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट सात रत्नि और उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की कही है, इतनी ही अवगाहना इन व्यंतरों एवं ज्योतिष्क देवों की भी हैं।
लब्धि की अपेक्षा देव पर्याप्तक ही होते हैं। अतएव पर्याप्त, अपर्याप्त विकल्प संभव नहीं होने से इनकी पृथक्-पृथक् अवगाहना का प्रमाण नहीं बताया है, किन्तु वैक्रियशरीर होने से विविध प्रकार के उत्तरवैक्रिय रूप निष्पन्न करने की क्षमता वाले होने से तत्सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है। वैमानिक देवों की अवगाहना
३५५. (१) सोहम्मदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नता ?
गोयमा ! दुविहा प० । तं भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ ।
तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसतसहस्सं । .. [३५१-१ प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प के देवों की शरीरावगाहना कितनी है ?
[३५१-१ उ.] गौतम ! (सौधर्मकल्प के देवों की अवगाहना) दो प्रकार की कही गई है—भवधारणीय और 'उत्तरवैक्रिय। इनमें से भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात रत्नि है।
उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन प्रमाण है। (२) जहा सोहम्मे तहा ईसाणे कप्पे वि भाणियव्वं । [३५५-२] ईशानकल्प में भी देवों की अवगाहना का प्रमाण सौधर्मकल्प जितना ही जानना चाहिए।
(३) जहा सोहम्मयदेवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पाणं देवाणं पुच्छा भाणियव्वा जाव अच्चुयकप्पो
सणंकुमारे भवधारणिज्जा जह० अंगु० असं० उक्कोसेणं छ रयणीओ; उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे ।