SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ अनुयोगद्वारसूत्र पंच धणुसयाइं । तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं धणुसहस्सं। [३४७-१ प्र.] भगवन् ! नारकों के शरीर की कितनी अवगाहना कही गई है ? [३४७-१ उ.] आयुष्मन् ! नारक जीवों की शरीर-अवगाहना दो प्रकार से प्ररूपित की गई है—१. भवधारणीय (शरीर-अवगाहना) और २. उत्तरवैक्रिय (शरीर-अवगाहना)। उनमें से भवधारणीय (शरीर) की अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कष्ट पांच सौ धनषप्रमाण है। उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक हजार धनुषप्रमाण है। विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में नारक जीवों की अवगाहना का प्रमाण बताया है। वर्णन करने की दो शैलियां हैंसामान्य और विशेष। यहां सामान्य से समस्त नारक जीवों की भवधारणीय शरीरापेक्षया और उत्तरवैक्रियशरीरापेक्षया अवगाहना का निरूपण किया है। ___नारक आदि के शरीर द्वारा अवगाढ आकाश रूप क्षेत्र अथवा नारक आदि जीवों का शरीर अवगाहना शब्द का वाच्यार्थ है। गतिनामकर्म के उदय से नर-नारकादि भव में जिस शरीर की उपलब्धि होती है. और उसकी जो ऊंचाई हो, वह भवधारणीय अवगाहना है। उस प्राप्त शरीर से प्रयोजनविशेष से अन्य शरीर की जो विकुर्वणा की जाती है, वह उत्तरवैक्रिय-अवगाहना कहलाती है। नारकों और देवों का भवधारणीय शरीर वैक्रिय होता है। तिर्यंचों एवं मनुष्यों का भवधारणीय शरीर तो औदारिक है, किन्तु किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों और तिर्यंचयोनिक जीवों में लब्धिवशात् वैक्रियशरीर भी पाया जाता है। यद्यपि प्रकृत में सामान्यतः नारकों के शरीर की अवगाहना की जिज्ञासा की गई है लेकिन उत्तर में भेदपूर्वक उस अवगाहना का निर्देश इसलिए किया है कि भेद किये बिना शरीर की अवगाहना के प्रमाण को स्पष्ट रूप से बताना संभव नहीं है। इस प्रकार सामान्य से नारकों की अवगाहना का प्रमाण कथन करने के पश्चात् अब विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पृथ्वियों के नारकों की अवगाहना बतलाते हैं। (२) रयणप्पभापुढवीए नेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा भवधारणिज्जा य १ उत्तरवेउव्विया य २ ।। तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सत्त धणूइं तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई । तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभागं उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइजाओ रयणीओ य । [३४७-२ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की कितनी शरीरावगाहना कही है ? [३४७-२ उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की कही गई है—१. भवधारणीय और २. उत्तरवैक्रिय। उनमें से I भवे-नारकादिपर्यायभवनलक्षणे आयु:समाप्तिं यावत्सततं ध्रियते या सा भवधारणीया, सहजशरीरगतेत्यर्थः या तु तदग्रहणोत्तरकालं कार्यमाश्रित्य क्रियते सा उत्तरवैक्रिया। —अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र १६४
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy