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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण २४७ रंभाना एक फलांग तक सुना जा सकता है। अतः संभव है कि उस समय चार फल्ग का एक योजन होता हो। इससे यह भी फलित होता है कि अन्यान्य देशों में योजन के भिन्न-भिन्न माप प्रचलित थे। जिस देश में सोलह सौ धनुषों का एक गव्यूत होता है, वहां छह हजार चार सौ धनुषों का एक योजन होगा। दिगंबर परंपरा में अंगुल का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है—अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणुओं का एक अवसन्नासन्न, आठ अवसन्नासन्न की एक सन्नासन्न, आठ सन्नासन का एक त्रुटरेणु (व्यवहाराणु), आठ त्रुटरेणु का एक त्रसरेणु (त्रसजीव के पांव से उड़ने वाला अणु), आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु का उत्तम भोगभूमिज का बालाग्र, आठ उत्तम भोगभूमिज के बालाग्र का एक मध्यम भोगभूमिज का बालाग्र, आठ मध्यम भोगभूमिज के बालाग्र का एक जघन्य भोगभूमिज का बालाग्र, आठ जघन्य भोगभूमिज के बालाग्र का एक कर्मभूमिज का बालाग्र, आठ कर्मभूमिज के बालाग्र की एक लिक्षा (लीख), आठ लीख की एक जूं, आठ जूं का एक यव और आठ यव का एक अंगुल, इसके आगे का वर्णन एक-सा है। उत्सेधांगुल का प्रयोजन ३४६. एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओयणं ? एएणं उस्सेहंगुलेणं णेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणूसदेवाणं सरीरोगाहणाओ मविजंति । [३४६ प्र.] भगवन् ! इस उत्सेधांगुल से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? [३४६ उ.] आयुष्मन् ! इस उत्सेधांगुल से नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। विवेचन— सूत्र में उत्सेधांगुल के उपयोग का प्रयोजन बताया है कि उससे नारकादिकों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। जीव दो प्रकार के हैं—मुक्त और संसारी। मुक्त जीवों की अटल अवगाहना होती है, अर्थात् सिद्ध तो जिस मनुष्यशरीर से मुक्ति की उससे त्रिभागन्यून अवगाहना वाले होते हैं। इनकी यह अवगाहना सादि-अपर्यवसित है। किन्तु संसारी जीव जन्म-मरण रूप संसरण के कारण एक गति से गत्यन्तर में गमन करते हैं और वहां अपने कर्मोदयवशात् जितनी अवगाहना वाला जैसा शरीर प्राप्त होता है, तदनुरूप भवपर्यन्त रहते हैं। उनकी यह अवगाहना अनियत होती है। इसलिए उनकी अवगाहना का प्रमाण जानना आवश्यक है और यह कार्य उत्सेधांगुल द्वारा संपन्न होता है। अतएव अब प्रश्नोत्तरों के द्वारा नारकादि जीवों की अवगाहना का वर्णन करते हैं। नारक-अवगाहना निरूपण ३४७. (१) णेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नता ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—भवधारणिज्जा य १ उत्तरवेउव्विया य २ । तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं मागधग्रहणात् क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितं, तत्र यस्मिन् देशे षोडशभिर्धनु:शतैर्गव्यूतं स्यात्तत्र षड्भिः सहरीश्चतुर्भिः शतैर्धनुषां योजनं भवतीति। -स्थानांग पद ७. वृत्ति पत्र ४१२ २. तिलोषपण्णत्ति १/१०२/११६, तत्त्वार्थराजवार्तिक, हरिवंशपुराण, गो. जीवकांड आदि।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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