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अनुयोगद्वारसूत्र मनुष्यों का बालाग्र होता है। आठ हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के बालारों के बराबर हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालागों के बराबर पूर्व महाविदेह
और अपर महाविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। आठ पूर्वविदेह-अपरविदेह के मनुष्यों के बालाग्रों के बराबर भरत-एरावत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। भरत और एरावत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालारों की एक लिक्षा (लीख) होती है। आठ लिक्षाओं की एक नँ, आठ जुओं का एकयवमध्य और आठ यवमध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है।
__३४५. एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पादो, बारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छन्नउती अंगुलाई से एगे दंडे इ वा धणू इ वा जुगे इ वा नालिया इ वा अक्खे इ वा मुसले इ वा, एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाइं जोयणं ।
[३४५] इस अंगुलप्रमाण से छह अंगुल का एक पाद होता है। बारह अंगुल की एक वितस्ति, चौबीस अंगुल की एक रत्नि, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि और छियानवै अंगुल का एक दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है। इस धनुषप्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है।
विवेचन— इन दो सूत्रों में बताया गया है कि उत्सेधांगुल की निष्पत्ति कैसे होती है ? पहले तो सामान्य रूप से कथन किया है कि अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका आदि की निष्पत्ति होती है और उसके बाद उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका आदि को पूर्व-पूर्व की अपेक्षा आठ-आठ गुणा बतलाया गया है। इन दोनों में से पहले कथन द्वारा यह प्रकट किया गया है कि ये सब अनन्त परमाणुओं द्वारा निष्पन्न होने की दृष्टि से समान हैं और दूसरे प्रकार द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न होने की समानता होने पर भी पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर में अष्टगुणाधिकता रूप विशेषता है। इस प्रकार प्रथम कथन सामान्य रूप एवं द्वितीय कथन विशेष रूप समझना चाहिए।
उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका और श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ये दोनों भी अनन्त परमाणुओं की सूक्ष्म परिणामपरिणत स्कन्ध अवस्थायें हैं और व्यवहारपरमाणु की अपेक्षा कुछ स्थूल होती हैं। अत: व्यवहारपरमाणु से भिन्नता बताने के लिए इनका पृथक्-पृथक् नामकरण किया है। स्वतः या पर के निमित्त से ऊपर, नीचे और तिरछे रूप में उड़ने वाली रेणु-धूलि का नाम ऊर्ध्वरेणु है। हवा आदि के निमित्त से इधर-उधर उड़ने वाले धूलिकण त्रसरेणु और रथ के चलने पर चक्र के जोर से उखड़ कर उड़ने वाली धूलि रथरेणु कहलाती है। बालाग्र, लिक्षा आदि शब्दों के अर्थ प्रसिद्ध हैं।
रथरेणु के पश्चात् देवकुरु-उत्तरकुरु, हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष आदि क्षेत्रों के क्रमोल्लेख से उस-उस क्षेत्र सम्बन्धी शुभ अनुभाव की न्यूनता बताई गई है।
प्रस्तुत सूत्र में मगध देश में व्यवहत योजन का माप बताया है—'चत्तारि गाउयाई जोयणं'–चार गव्यूतों का एक योजन होता है। गव्यूत का शब्दार्थ है—वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना जा सके। सामान्यतः गाय का
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बुद्धिस्ट इण्डिया, पृष्ठ ४१