SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण २४३ ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म- अन्तिम निरंश पुद्गल परमाणु । पुद्गल के उक्त छह भेदों में से व्यवहार परमाणु का समावेश पांचवें सूक्ष्मवर्ग में होता है। (२) से णं भंते ! अगणिकायस्स मझमझेणं वीतीवदेजा ? हंता वितीवदेजा । से णं तत्थ डहेज्जा ? नो तिणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमति ।। [३४३-२ प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु अग्निकाय के मध्य भाग से होकर निकल जाता है ? [३४३-२ उ.] आयुष्मन् ! हाँ, निकल जाता है। [प्रश्न] तब क्या वह उससे जल जाता है ? [उत्तर] यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि अग्निरूप शस्त्र का उस पर असर नहीं होता। विवेचन– अग्नि के द्वारा भस्म नहीं होने पर शिष्य सोचता है कि जल तो उसे अवश्य ही नष्ट कर देता होगा। अतः पुनः प्रश्न पूछता है (३) से णं भंते ! पुक्खलसंवट्टयस्स महामेहस्स मझमझेणं वीतीवदेजा ? हंता वीतीवदेज्जा । से णं तत्थ उदउल्ले सिया ? नो तिणठे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमति । [३४३-३ प्र.] भगवन् ! क्या व्यावहारिक परमाणु पुष्करसंवर्तक नामक महामेघ के मध्य में से होकर निकल सकता है ? [३४३-३ उ.] आयुष्मन् ! हाँ, निकल सकता है। [प्रश्न] तो क्या वह वहां पानी से गीला हो जाता है ? [उत्तर] नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है, वह पानी से भीगता नहीं, गीला नहीं होता है। क्योंकि अप्कायरूप शस्त्र का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। विवेचन— पुष्करसंवर्तक एक महामेघ का नाम है, जो उत्सर्पिणीकाल के २१ हजार वर्ष प्रमाण वाले दुषम-दुषम नामक प्रथम आरे की समाप्ति के अनन्तर दूसरे आरे के प्रारम्भ में सर्वप्रथम बरसता है। जैन मान्यता के अनुसार व्यवहार काल के दो भेद हैं-उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकाल। उत्सर्पिणीकाल में मनुष्यादिक के बल, वैभव, श्री आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि और अवसर्पिणी में उत्तरोत्तर ह्रास होता है। ये दोनों प्रत्येक दस-दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण के होते हैं और प्रत्येक छह-छह विभागों में विभाजित हैं। जिनको आरा या आरक कहते हैं। उत्सर्पिणी के अनन्तर अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के अनन्तर उत्सर्पिणी का क्रम भी निरन्तर परिवर्तित होता रहता है एवं इन दोनों के कुल मिलाकर बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कालमान को एक कालचक्र कहते हैं। ऐसे कालचक्र अतीत में अनन्त हो चुके हैं और अनागत में अनन्त होंगे। क्योंकि काल अनन्त है। सर्पिणीद्वय काल के छह भेद और कालप्रमाण- १. दुषमादुषमा (२१०० वर्ष), २. दुषमा (२१००० बादरबादरबादर बादरसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं च सुहुमसुहमं धरादियं होदि छब्भेयं ॥ - गो. जीवकांड ६०३
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy