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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण २४१ सूक्ष्म रूप से परिणत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है। जैसे एक कमरे में एक दीपक का प्रकाश पर्याप्त है, किन्तु उसमें अन्य सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी समा जाता है। इसी प्रकार उस एक दीपक के अथवा सैकड़ों दीपकों के प्रकाश को एक लघु बर्तन से आच्छादित कर दिया जाए तो उसी में वह प्रकाश सिमट जाता है। इससे स्पष्ट है कि उन प्रकाशपरमाणुओं की तरह पुद्गल में संकोच-विस्तार रूप में परिणित होने की शक्ति है, अतएव परमाणु या परमाणुओं का पिंड-स्कन्ध जिस स्थान में अवस्थित होता है, उसी स्थान में अन्य परमाणु और स्कन्ध भी रह सकते हैं। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी परमाणु की सूक्ष्मता का कुछ अनुमान लग सकता है। पचास शंख परमाणुओं का भार ढाई तोले के लगभग और व्यास एक इंच का दस करोड़वां भाग होता है। धूल के एक लघुतम कण में दस पद्म से भी अधिक परमाणु होते हैं। सिगरेट को लपेटने के पतले कागज की मोटाई में एक से एक को सटाकर रखने पर एक लाख परमाण आ जायेंगे। सोडावाटर को गिलास में डालने पर उसमें जो नन्हीं-नन्हीं बूंदें उत्पन्न होती हैं, उनमें से एक बूंद के. परमाणुओं की गणना करने के लिए तीन अरब व्यक्तियों को बैठा दें और वे निरन्तर बिना खाये, पीये और सोये प्रतिमिनट यदि तीन सौ की गति से परिगणना करें तो उस बूंद के परमाणुओं की समस्त संख्या को गिनने में चार माह का समय लग जायेगा। बारीक केश को उखाड़ते समय उसकी जड़ पर जो रक्त की सूक्ष्म बूंद लगी रहेगी, उसे अणुवीक्षण यंत्र के माध्यम से इतना बड़ा रूप दिया जा सकता है कि वह बूंद छह या सात फीट के व्यास वृत्त में दिखलाई दे तो भी उसके भीतर के परमाणु का व्यास १/१००० इंच ही होगा। उपर्युक्त कथन का यह आशय हुआ कि जो परम अणु रूप है, उसी को परमाणु कहते हैं । जैनदर्शन में इस परमाणु की विभिन्न अपेक्षाओं से व्याख्या इस प्रकार की गई है कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगंधवों द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥ अर्थात् परमाणु किसी से उत्पन्न नहीं होता अतः वह कारण ही है। उससे छोटी दूसरी कोई वस्तु नहीं है अतः वह अन्त्य है, सूक्ष्म है और नित्य है। एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श वाला है तथा कार्य देखकर ही उसका अनुमान किया जा सकता है—प्रत्यक्ष नहीं होता है। अत्तादि अत्तमझं अत्ततं चेव णेव इंदियगेझं । जं दव्वं अविभागी तं परमाणुं विआणाहि ॥३ अर्थात् जिसका आदि, मध्य और अन्त स्वयं वही है और जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं, ऐसे विभागरहित द्रव्य को परमाणु समझना चाहिए। १. जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान पृ. ४७ तत्त्वार्थभाष्य, तत्त्वार्थराजवार्तिक, अनुयोगद्वारसूत्र टीका पत्र १६१ ३. सर्वार्थसिद्धि पृ. २२१ में उद्धृत
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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