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________________ समझने की सरलता की दृष्टि से उन सब वचन-पक्षों को अधिक से अधिक सात भेदों में विभाजित कर दिया है। अनुयोगद्वार में सात नयों का वर्णन है। १. नैगमनय, २. संग्रहनय, ३. व्यवहारनय, ४. ऋजुसूत्रनय, ५. शब्दनय, ६. समभिरूढनय, ७. एवंभूतनय । ठाणांग और प्रज्ञापना में भी सात नयों का वर्णन है। सात नयों में शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन शब्दनय हैं६९ और नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थनय हैं। तीन शब्द को विषय कहते हैं, अतः शब्दनय हैं और शेष चार अर्थ को अपना विषय बनाते हैं इसलिए अर्थनय है। ___सामान्य और विशेष आदि अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नैगमनय है। प्रस्तुत नय सत्तारूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को असाधारण रूप विशेष तथा पररूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अथवा दो द्रव्यों में से, दो पर्यायों में से तथा द्रव्य और पर्याय में से किसी एक को मुख्य और दूसरे को गौण करके जानना नैगमनय है। विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानना संग्रहनय है। जैसे—जीव कहने से त्रस, स्थावर प्रभृति सभी प्रकार के जीवों का परिज्ञान होता है, भेद सहित सभी पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के विरोध के बिना एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला संग्रहनय है। दूसरे शब्दों में समस्त पदार्थों का सम्यक् प्रकार से एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है। अथवा यों भी कह सकते हैं कि व्यवहार की अपेक्षा न करके सत्तादि रूप से सकल पदार्थों का संग्रह करना संग्रहनय है। संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों का योग्य रीति से विभाग करने वाला अभिप्राय व्यवहारनय है।६ संग्रहनय जिस अर्थ को ग्रहण करता है, उस अर्थ का विशेष रूप से बोध करने के लिए उसका । आवश्यक होता है। यह सत्य है, संग्रहनय में सामान्य मात्र का ही ग्रहण होता है तथापि उस सामान्य का रूप क्या है ? इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार की जरूरत होती है। इसलिए सामान्य को भेदपूर्वक ग्रहण करना व्यवहारनय है। वर्तमानकालवर्ती पर्याय को मान्य करने वाले अभिप्राय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। भूतकाल विनष्ट और भविष्यकाल अनुत्पन्न होने से वह केवल वर्तमान कालवर्ती पर्याय को ही ग्रहण करता है। ट ७३. ६७. सत्त मूलनया पं. तं. नेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते । —स्थानांग ७/५५२ ६८. से किं तं णयगती ? जण्णं णेगमसंगहववहारउज्जुसुयसद्दमभिरूढएवंभूयाणं नयाणं जा गती, अथवा सव्वणया वि जं इच्छति । -प्रज्ञापना, पन्ना १६ ६९. तिहं सद्दनयाणं । -अनुयोगद्वार १४८ ७०. सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः । —जैनतर्कभाषा ७१. णेगेहिं माणेहिं मिय इति णेगमस्स य निरूत्ती । -अनुयोगद्वारसूत्र ७२. सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः । -जैनतर्कभाषा स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदान् विशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः । -सर्वार्थसिद्धि १/३३ ७४. सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते । निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथासति विभाव्यते ॥ श्लोकवार्तिक १/३३ ७५. व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहकः संग्रहनयः । -धवलाखण्ड १३ ७६. संग्रहेणं गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते से व्यवहारः । जैनतर्कभाषा ७७. संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवहियते इति व्यवहारः । —आप्तपरीक्षा ९ ७८. (क) ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः । (ख) पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्वो । —जैनतर्कभाषा [२६]
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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