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अनुयोगद्वारसूत्र - अब विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का विचार करते हैंविभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण
३३२. से किं तं विभागणिप्फण्णे ? विभागणिप्फण्णे
अंगुल विहत्थि रयणी कुच्छी धणु गाउयं च बोद्धव्वं ।
जोयण सेढी पयरं लोगमलोगे वि य तहेव ॥ ९५॥ [३३२ प्र.] भगवन् ! विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का क्या स्वरूप है ?
[३३२ उ.] आयुष्मन् ! अंगुल, वितस्ति (बेंत, वालिश्त), रनि (हाथ), कुक्षि, धनुष, गाऊ (गव्यूति), योजन, श्रेणि, प्रतर, लोक और अलोक को विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण जानना चाहिए। ९५
विवेचन- सूत्र में विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का वर्णन किया है। इसका पृथक् रूप से निरूपण करने का कारण यह है कि क्षेत्र यद्यपि स्वगत प्रदेशों की अपेक्षा प्रदेशनिष्पन्न ही है, परन्तु जब स्वरूप से उसका वर्णन न किया जाकर सुगम बोध के लिए उन प्रदेशों का कथन अंगुल आदि विभागों के द्वारा किया जाता है, तब उसे विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं । अर्थात् क्षेत्रनिष्पन्नता से इस विभागनिष्पन्नता में यह अन्तर है कि क्षेत्रनिष्पन्नता में क्षेत्र अपने प्रदेशों द्वारा जाना जाता है, लेकिन विभागनिष्पन्नता में उसी क्षेत्र को विविध अंगुल, वितस्ति आदि से जानते हैं। यह अंतर प्रमाण शब्द की करणसाधन रूप व्युत्पत्ति की अपेक्षा से जानना चाहिए।
' विभागनिष्पन्न की आद्य इकाई अंगुल है। अतएव अब अंगुल का विस्तार से विवेचन करते हैं। अंगुलस्वरूपनिरूपण
३३३. से किं तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—आयंगुले १ उस्सेहंगुले २ पमाणंगुले ३ । । [३३३ प्र.] भगवन् ! अंगुल का क्या स्वरूप है ? [३३३ उ.] आयुष्मन् ! अंगुल तीन प्रकार का है, यथा—१. आत्मांगुल, २. उत्सेधांगुल और ३. प्रमाणांगुल।
विवेचन— अंगुल के मुख्य तीन प्रकार हैं। अब क्रम से उनका विस्तृत वर्णन किया जा रहा है। आत्मांगुल
३३४. से किं तं आयंगुले ?
आयंगुले जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाइं पुरिसे पमाणजुत्ते भवति, दोणिए पुरिसे माणजुत्ते भवति, अद्धभारं तुलमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवति ।
माणुम्माण-पमाणे जुत्ता लक्खण-वंजण-गुणेहिं उववेया । उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा ॥ ९६॥