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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण २३३ ३३१. से किं तं पदेसणिप्फण्णे ? पदेसणिप्फण्णे एगपदेसोगाढे दुपदेसोगाढे जाव संखेज्जपदेसोगाढे असंखिज्जपदेसोगाढे । सेतं सणिफण्णे । [३३१ प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [ ३३१ उ.] आयुष्मन् ! एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावगाढ यावत् संख्यात प्रदेशावगाढ, असंख्यात प्रदेशावगाढ क्षेत्ररूप प्रमाण को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं । विवेचन — सूत्र में क्षेत्रप्रमाण के प्रथम भेद प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण का स्वरूप बतलाया 1 क्षेत्र का अविभागी अंश (जिसका विभाग न किया जा सके और न हो सके ऐसे) भाग को प्रदेश कहते हैं । ऐसे प्रदेश से जो क्षेत्रप्रमाण निष्पन्न हो, वह प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहलाता है । यहां क्षेत्र शब्दः आकाश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आकाश के दो भेद हैं— लोकाकाश और अलोकाकाश । धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्य जितने आकाश रूप क्षेत्र में अवगाढ होकर स्थित हैं, उसे लोकाकाश और इसके अतिरिक्त कोरे आकाश को अलोकाकाश कहते हैं । यद्यपि अलोकाकाश में आकाशास्तिकाय द्रव्य का सद्भाव है, फिर भी उसे अलोकाकाश इसलिए कहते हैं कि लोक और अलोक के नियामक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य वहां नहीं हैं । इनका सद्भाव और असद्भाव ही आकाश के लोकाकाश, अलोकाकाश विभाग का कारण है। प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण एकप्रदेशावगाढ़ादि रूप है। क्योंकि वह एक प्रदेशादि अवगाढरूप क्षेत्र एक आदि क्षेत्र प्रदेशों से निष्पन्न हुआ है और ये एकादि प्रदेश अपने निजस्वरूप से ही प्रतीति में आते हैं, अतएव इनमें प्रमाणता जानना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि क्षेत्र स्वप्रदेशों की अपेक्षा जब स्वस्वरूप से जाना जाता है तब 'प्रमीयते यत् तत् प्रमाणम्' – जो जाना जाये वह प्रमाण है, इस प्रकार के कर्मसाधन रूप प्रमाण शब्द की वाच्यता से वह एकदि प्रदेश रूप क्षेत्र प्रमाण होता है, परन्तु जब 'प्रमीयतेऽनेन यत्तत् प्रमाणम्' इस प्रकार प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन में की जाती है तब क्षेत्र स्वयं प्रमाण रूप न होकर एक प्रदेशादि उसका स्वरूप प्रमाण होता है । यद्यपि आकाश रूप क्षेत्र तो एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेशात्मक है। लेकिन सूत्र में 'एगपदेसोगाढे, दुपदेसोगाढे जाव संखेज्जपदेसोगाढे असंखिज्जपदेसोगाढे' पद देने का कारण यह है कि यहां लोकाकाश रूप क्षेत्र को ग्रहण किया है और लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश होते हैं और उन्हीं में जीव, पुद्गल आदि द्रव्य अवगाढ होते हैं। द्रव्य की अपेक्षा आकाश एक है और उसमें प्रदेशों की कल्पना का आधार है पुद्गलद्रव्य । पुद्गलद्रव्य के दो रूप हैं- परमाणु और स्कन्ध । परमाणु और स्कन्ध का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। एक परमाणु जितने क्षेत्र को अवगाढ करके रहता है, उतने क्षेत्र को एक प्रदेश कहते हैं। आकाश का स्वभाव अवगाहना देने के कारण उसके एक प्रदेश में परमाणु से लेकर अनन्त परमाणुओं के पिंड रूप स्कन्ध का भी अवगाह हो सकता है। इसी बात की ओर संकेत करने के लिए सूत्र में एकप्रदेशावगाढ से लेकर असंख्यातप्रदेशावगाढ तक पद दिये हैं । यही प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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