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________________ अनुयोगद्वारसूत्र की एक काकणी होती है । त्रिभागन्यून दो गुंजा अर्थात् पौने दो गुंजा का एक निष्पाव होता है। इसके बाद के कर्ममाषक आदि का प्रमाण सूत्र में उल्लिखित है । २३२ कर्ममाषक, मंडलक और सुवर्ण के भारप्रमाण का विवरण भिन्न-भिन्न रीति में बताने का कारण यह है कि वक्ता और श्रोता, क्रेता और विक्रेता को अपने अभीष्ट प्रमाण में सुवर्ण आदि लेने-देने में एकरूपता रहे। जैसे जो व्यक्ति सौ की संख्या को न जानता हो, मात्र बीस तक की संख्या गिनना जानता हो, उसे संतुष्ट और आश्वस्त करने के लिए बीस-बीस को पांच बार अलग-अलग गिनकर समझाया जाता है। कर्ममाषक आदि का अलग-अलग रूप से प्रमाण बताने का भी यही आशय है । कथनभेद के सिवाय अर्थ में कोई अन्तर नहीं है । सुवर्ण, चांदी को तो सभी जानते हैं। शास्त्रों में रत्नों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं १. कर्केतनरत्न, २. वज्ररत्न, ३. वैडूर्यरत्न, ४. लोहिताक्षरत्न, ५. मसारगल्लरन, ६. हंसगर्भरत्न, ७. पुलकरत्न, ८. सौगन्धिकरत्न, ९. ज्योतिरत्न, १०. अञ्जनरल, ११. अंजनपुलकरत्न, १२. रजतरत्न, १३. जातरूपरत्न, १४. अंकरत्न, १५. स्फटिकरल, १६. रिष्टरल । 'से तं विभागनिप्फण्णे' पद द्वारा सूचित किया है कि मान से लेकर प्रतिमान तक विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पांच भेद हैं और उनका वर्णन उपर्युक्त प्रकार से जानना चाहिए तथा 'से तं दव्वप्पमाणे ' यह पद द्रव्यप्रमाण के वर्णन का उपसंहारबोधक है कि प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न के भेदों का वर्णन करने के साथ द्रव्यप्रमाण समग्ररूपेण निरूपित हो गया। अब क्रमप्राप्त प्रमाण के दूसरे भेद क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा करते हैं । क्षेत्र प्रमाणप्ररूपण ३३०. से किं तं खेत्तप्पमाणे ? खेत्तप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा ——–पदेसनिष्फण्णे य १ विभागणिप्फण्णे य २ । [३३० प्र.] भगवन् ! क्षेत्रप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [ ३३० उ. ] आयुष्मन् ! क्षेत्रप्रमाण दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है । वह इस प्रकार - १. प्रदेशनिष्पन्न और २. विभागनिष्पन्न । विवेचन — द्रव्यप्रमाण के मुख्य भेदों की तरह इस क्षेत्रप्रमाण के भी दो भेद हैं और उन भेदों के नाम भी वही हैं जो द्रव्यप्रमाण के भेदों के हैं । स्वगुणों की अपेक्षा प्रमेय होने से द्रव्य का निरूपण द्रव्यप्रमाण के द्वारा किया जाता है। किन्तु क्षेत्रप्रमाण के द्वारा पुन: उसी द्रव्य का वर्णन इसलिए किया जाता है कि क्षेत्र एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात आदि रूप अपने निर्विभाग भागात्मक अंशों- प्रदेशों से निष्पन्न है । प्रदेशों से निष्पन्न होना ही इसका निजस्वरूप है और इसी रूप से वह जाना जाता है । अतएव प्रदेशों से निष्पन्न होने वाले प्रमाण का नाम प्रदेशनिष्पन्न है तथा विभाग-भंग विकल्प से निष्पन्न होने वाले अर्थात् स्वगत प्रदेशों को छोड़कर दूसरे विशिष्ट भाग, भंग या विकल्प द्वारा निष्पन्न होने वाले को विभागनिष्पन्न कहते हैं । उक्त दोनों प्रकार के क्षेत्रप्रमाणों का विशेष वर्णन इस प्रकार है—
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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