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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण २२५ [३२० उ. ] आयुष्मन् ! (तरल पदार्थ विषय होने से ) रसमानप्रमाण धान्यमानप्रमाण से चतुर्भाग अधिक और अभ्यन्तर शिखायुक्त होता है । वह इस प्रकार — चार पल की एक चतुःषष्ठिका होती है। इसी प्रकार आठ पलप्रमाण द्वात्रिंशिका, सोलह पलप्रमाण षोडशिका, बत्तीस पलप्रमाण अष्टभागिका, चौसठ पलप्रमाण चतुर्भागिका, एक सौ अट्ठाईस पलप्रमाण अर्धमानी और दो सौ छप्पन पलप्रमाण मानी होती है। अतः (इसका अर्थ यह हुआ कि) दो — चतुःषष्ठिका की एक द्वात्रिंशिका, दो द्वात्रिंशिका की एक षोडशिका, दो षोडशिकाओं की एक अष्टभागिका, दो अष्टभागिकाओं की एक चतुर्भागिका, दो चतुर्भागिकाओं की एक अर्धमानी और दो अर्धमानियों की एक मानी होती है। ३२१. एतेणं रसमाणप्पमाणेणं किं पओयणं ? एएणं रसमाणप्पमाणेणं वारग-घडग-करग-किक्किरि-दइय-करोडि- कुंडियसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ । से तं रसमाणप्पमाणे । से तं माणे । 1 [३२१ प्र.] भगवन् ! इस रसमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [३२१ उ.] आयुष्मन् ! इस रसमानप्रमाण से वारक (छोटा घड़ा), घट — कलश, करक (घट विशेष ), किक्किरि (भांडविशेष), दृति ( चमड़े से बना पात्र कुप्पा), करोडिका (नाद - जिसका मुख चौड़ा होता है ऐसा बर्तन), कुंडिका (कुंडी) आदि में भरे हुए रसों ( प्रवाही पदार्थों) के परिमाण का ज्ञान होता है। यह रसमानप्रमाण है । इस प्रकार मानप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिए । विवेचन — इन दो सूत्रों में रसमानप्रमाण का स्वरूप, धान्यमानप्रमाण से उसका पार्थक्य, प्रवाही पदार्थों के मापने के पात्रों के नाम एवं परिमाण का उल्लेख किया है। धान्यमान और रसमान— इन दोनों प्रकार के मानप्रमाणों द्वारा वस्तु के परिमाण (मापवजन) का परिज्ञान किया जाता है। किन्तु इन दोनों में अंतर यह है कि धान्यमानप्रमाण के द्वारा ठोस पदार्थों का माप ज्ञात किया जाता है और मापे जाने वाले ठोस पदार्थ का शिरोभाग — शिखा — ऊपरी भाग —— ऊपर की ओर होता है। लेकिन रसमानप्रमाण के द्वारा तरल — द्रव पदार्थों के परिमाण का परिज्ञान किये जाने और तरल पदार्थों की शिखा अंतरमुखी —- अंदर की ओर होने से यह सेतिका आदि रूप धान्यमान प्रमाण से चतुर्भागाधिक वृद्धि रूप होता है। समानप्रमाण की आद्य इकाई 'चतुःषष्ठिका' और अंतिम 'मानी' है । चतुःषष्ठिका से लेकर मानी पर्यन्त मापने के पात्रों के नाम क्रमश: पूर्व-पूर्व से दुगुने - दुगुने हैं। जैसे कि चतुःषष्ठिका का प्रमाण चार पल है तो चार पल दुगुनी अर्थात् आठ पल द्वात्रिंशिका का प्रमाण है। इसी प्रकार शेष षोडशिका आदि के लिए समझना चाहिए। इसी बात को विशेष सुगमता से समझाने के लिए पुनः इन चतुःषष्ठिका आदि पात्रों के माप का प्रमाण बताया है। पश्चानुपूर्वी अथवा प्रतिलोमक्रम से मानी से लेकर चतुःषष्ठिका पर्यन्त के पात्रों का प्रमाण मानी से लेकर पूर्व-पूर्व में आधा-आधा कर देना चाहिए। जैसे दो सौ छप्पन पल की मानी को बराबर दो भागों—एक सौ अट्ठाईस, एक सौ अट्ठाईस पलों में विभाजित कर दिया जाये तो वह आधा भाग अर्धमानी कहलायेगा । इसी प्रकार शेष मापों के विषय में समझ लेना चाहिए। रसमानप्रमाण के प्रयोजन के प्रसंग में जिन पात्रों का उल्लेख किया गया है, वे तत्कालीन मगध देश में तरल पदार्थों को भरने के उपयोग में आने वाले पात्र हैं। ये पात्र मिट्टी, चमड़े एवं धातुओं से बने होते थे ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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