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________________ अनुयोगद्वारसूत्र चार अंगुल लंबे और चार अंगुल चौड़े तथा चार अंगुल गहरे बांस अथवा लोहे आदि के पात्र को कुडव कहते हैं। (कुडव द्वारा दूध, जल, आदि द्रव पदार्थ मापे जाते हैं।) इनको और इनके द्वारा मापे गये धान्य आदि को असति आदि कहने का कारण मान शब्द की करण और कर्म साधन निरुक्ति है | जब करणसाधन में 'मीयते अनेन इति मानम्' अर्थात् जिसके द्वारा मापा जाये वह मान, यह निरुक्ति करते हैं तब असति आदि मान शब्द की वाच्य हैं और 'मीयते यत् तत् मानम्' अर्थात् जो मापा जाये वह मान, इस प्रकार की कर्मसाधन व्युत्पत्ति करने पर धान्य आदि वस्तुएं ही मान शब्द की वाच्य होती हैं। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए । धान्यमानप्रमाण का प्रयोजन स्पष्ट है कि इससे मुक्तोली आदि में भरे हुए धान्य, अनाज आदि के प्रमाण का ज्ञान होता है। इस प्रकार से धान्यमानप्रमाण का आशय और उपयोग जानना चाहिए। अब रसमानप्रमाण का स्वरूप स्पष्ट करते हैं— २२४ रसमानप्रमाण ३२०. से किं तं रसमाणप्पमाणे ? रसमाणप्पमाणे धण्णमाणप्पमाणाओ चउभागविवड्ढिए अब्भितरसिहाजुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिज्जति । तं जहा— चउसट्ठिया ४, बत्तीसिया ८, सोलसिया १६, अट्ठभाइया ३२, चउभाइया ६४, अद्धमाणी १२८, माणी २५६ । दो चउसट्ठियाओ बत्तीसिया, दो बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोलसियाओ अट्ठभाइया, दो अट्ठभाइयाओ चउभाइया, दो चउभाइयाओ अद्धमाणी, दो अद्धमाणीओ माणी । [३२० प्र.] भगवन् ! रसमानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? अक्षः पिच्ः पाणितलं किंचित् पाणिश्च तिन्दुकम् । विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता ॥ करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः । उदुवरं च पर्यांयैः कर्ष एक निगद्यते ॥ स्यात् कर्षाभ्यामर्द्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा । शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टिराम्रं चतुर्थिका ॥ प्रकुंच षोडशी विल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते । पलाभ्यां प्रसृतिर्ज्ञेया प्रसृतश्च निगद्यते ॥ प्रसृतिभ्यामञ्जलि स्यात् कुडवो अर्द्धशरावकः । अष्टमानं च संज्ञेयं कुडवाभ्यां च मानिका ॥ शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थः चतुःप्रस्थैस्तथाढकम् । भाजनं कांस्यपात्रं च चतुः षष्टिपलं च तत् ॥ चतुर्भिराढकैर्द्रोणः कलशोनल्बणोन्मनी । उन्मानञ्च घटो राशिर्द्रोणपर्यायसंज्ञकाः ॥ द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुः षष्टिशरावकाः । शूर्पाभ्यां च भवेद् द्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता ॥ द्रोणीचतुष्टयं खारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिभिः । चतुः सहस्रपलिका षण्णवत्यधिका च सा ॥ पलानां द्विसहस्रं च भार एकः प्रकीर्तितः । तुला पलशतं ज्ञेया सर्वत्र वैष निश्चयः ॥ माषटंकाक्षविल्वानि कुडवः राशिर्गोणी खारिकेति कुडव के लिए संकेत किया है प्रस्थमाढकम् । यथोत्तरचतुर्गुणा ॥ मृदुस्तु वेणु लोहादेर्भाण्डं यच्चतुरंगुलम् । विस्तीर्णं च तथोच्चं च तन्मानं कुडवं वदेत् ॥
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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