________________
प्रमाणाधिकारनिरूपण
२१९
नहीं कहा गया है। किन्तु जैन व्याख्यापद्धति का विस्तार से वर्णन करने वाला यह अनुयोगद्वारसूत्र है। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन व्याख्यापद्धति का क्या दृष्टिकोण है ? जैन शास्त्रों में प्रत्येक शब्द की लाक्षणिक व्याख्या ही नहीं की है, अपितु उस शब्द का किन-किन संभावित अर्थों में और किस रूप में प्रयोग किया जाता है और उस समय उसका क्या अभिधेय होता है, यह भी स्पष्ट किया गया है। जो आगे किये जाने वाले वर्णन से स्पष्ट है।
प्रमाण शब्द के नियुक्तिमूलक अर्थ के समान होने पर भी भारतीय मनीषियों ने प्रमाण के भिन्न-भिन्न लक्षण निरूपित किये हैं। फिर भी भारतीय ही नहीं अपितु विश्व मनीषा का इस बिन्दु पर मतैक्य है कि यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य । ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यक् निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और इससे विपरीत निर्णायक ज्ञान अयथार्थ, किन्तु प्रमाण सिर्फ यथार्थ ज्ञान होता है।
प्रमाण की चतुर्विधता का कारण— जैन वाङ्मय में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का बड़ा महत्त्व है। किसी भी विषय की चर्चा तब तक पूर्ण नहीं समझी जाती जब तक उस विषय का वर्णन द्रव्यादि चार अपेक्षाओं से न किया जाये। क्योंकि जगत् की प्रत्येक वस्तु प्रदेश वाली है, वह उन प्रदेशों में सत् रूप से रहती हुई उत्पाद-व्यय (उत्पत्ति-विनाश) रूप परिणति के द्वारा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिणत होती रहती है। इसीलिए लोक के पदार्थों का वर्णन द्रव्यदृष्टि से किया जाता है। जब प्रत्येक द्रव्य प्रदेशवान् है तो उसका अवस्थान-आधार बताने के लिए क्षेत्र का और उस द्रव्य का उसी पर्याय रूप में अवस्थित रहने के समय का निर्धारण करने के लिए काल का एवं वस्तु के असाधारण भाव स्वभाव-स्वरूप को जानने के लिए भाव का परिज्ञान होना आवश्यक है। इन चारों प्रकारों से ही पदार्थ क अस्तित्व पूर्ण या विशद रूप से जाना जा सकता है या समझाया जा सकता है। इसी कारण जैनदर्शन में प्रत्येक विषय के वर्णन की ये चार मुख्य अपेक्षाएं हैं।
साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि प्रमाण शब्द यहां न्यायशास्त्रप्रसिद्ध अर्थ का वाचक नहीं किन्तु व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। जिसके द्वारा कोई वस्तु मापी जाए, नापी जाए, तोली जाए या अन्य प्रकार से जानी जाए वह भी प्रमाण है। यह बात मूलपाठोक्त प्रमाण के चार भेदों से स्पष्ट है।
इस प्रकार सामान्य रूप से प्रमाण के भेदों का निर्देश करने के पश्चात् अब उनका विस्तार से वर्णन प्रारम्भ किया जाता है। द्रव्यप्रमाण प्रथम है, अतएव पहले उसी का विचार करते हैं। द्रव्यप्रमाणनिरूपण
३१४. से किं तं दव्वपमाणे ? दव्वपमाणे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—पदेसनिष्फण्णे य १ विभागनिष्फण्णे य २ । [३१४ प्र.] भगवन् ! द्रव्यप्रमाण का स्वरूप क्या है ?
[३१४ उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यप्रमाण दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, यथा—प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न।
विवेचन— शिष्य ने प्रश्न किया है कि भगवन् ! प्रमाण के चार भेदों में से प्रथम द्रव्यप्रमाण का क्या स्वरूप है ? और उत्तर में आगमिक शैली के अनुसार बताया कि द्रव्य विषयक प्रमाण दो प्रकार का है—१. प्रदेशनिष्पन्न